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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. और श्री देवेन्द्र मुनि जी म. जो ओर पधार रहे थे तब पुनः आपके पूना में दर्शन हुए और उसके वर्तमान में आचार्य हैं वहाँ पर पधारे थे। पहली बार उनके दर्शनों । पश्चात् सन् १९८७ में पूना सम्मेलन हुआ, उस सम्मेलन में आपश्री का सौभाग्य मिला, उपाध्यायश्री के आध्यात्मिक सारगर्भित प्रवचन । पधारे और आपश्री के शिष्य-रत्न श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. को को सुनकर मेरा हृदय आनन्द विभोर हो उठा। मध्याह्न में
"उपाचार्य पद" प्रदान किया गया था। आपश्री के दर्शन और उपाध्यायश्री ने हमारे से आगम संबंधी प्रश्न पूछे और जिन प्रश्नों
प्रवचनों का लाभ मिला। १९८७ का वर्षावास उपाध्यायश्री का स्व. का उत्तर हमें नहीं आया उन्हें उपाध्यायश्री ने बताने की कृपा की।
आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. सा. के साथ अहमदनगर में प्रथम दर्शन में ही उनके आत्मीयतापूर्ण सद्व्यवहार के कारण मुझे
हुआ। उस अवसर पर भी हम वहाँ पर थीं और उपाध्यायश्री के ऐसा अनुभव हुआ कि हमारा परिचय आज का नहीं अपितु वर्षों
दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनके प्रवचन भी हमने अनेक बार पुराना है।
सुने। वे शेर की तरह दहाड़ते थे, उनके प्रवचनों में जहाँ आगम के उस समय बाल-दीक्षा के प्रकरण को लेकर कुछ ऐसे स्वार्थी गुरु गंभीर रहस्य रहते वहाँ जीवन के ऐसे तथ्यों की भी चर्चा होती तत्त्वों के द्वारा गलत धारणाएँ जन-मानस में फैलाई जा रही थीं। थी जो सभी के लिए बहुत ही उपयोगी होती थी। मैंने अपने प्रवचन में उपाध्यायश्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व
__ वस्तुतः उपाध्यायश्री महान् संत-रल थे। उनके स्वर्गवास से को लेकर स्पष्ट शब्दों में कहा-बम्बई संघ का महान् सौभाग्य है,
अपार क्षति हुई है। ऐसा महान् संत जो युग-युग के पश्चात् होता है ऐसे निस्पृही तत्वदर्शी महापुरुषों का आपके संघ को सौभाग्य मिला
आज हमारे बीच नहीं है। उनके स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है है। इस सुनहरे अवसर पर लाभ लेना है, यदि आप लोगों ने किसी
मैं अपनी ओर से उस महान् गुरु के चरणों में अपनी भावभीनी भ्रांतिवश इन गुरु चरणों की सेवा का लाभ नहीं लिया तो बाद में
श्रद्धार्चना समर्पित करती हूँ और यह निवेदन करती हूँ कि उनका आपको पश्चात्ताप करना होगा। उपाध्यायश्री का ज्ञान कितना गहरा
ज्योतिर्मय जीवन हमें सदा-सदा साधना के पथ पर आगे बढ़ने के है, हमने तो प्रथम दर्शन में ही यह अनुभव किया है कि यह ज्ञान
लिये प्रेरित करता रहे। की ज्योति है और इस ज्योति के चरणों में रहकर हमें भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसी समय घोड़नदी संघ गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ, मैंने घोड़नदी संघ को यह पावन प्रेरणा दी कि महाराष्ट्र की धरती ऐसे सद्गुरुदेव को पाकर धन्य हो उठेगी।
श्री चरणों में श्रद्धा सुमन आपके संघ का परम सौभाग्य है कि गुरुदेवश्री का बम्बई से विहार उस दिशा में हो रहा है, अतः आप जागरूकता के साथ गुरुदेव के
-साध्वी रजत रश्मि “पंजाबी" वर्षावास के लिए पूर्ण रूप से प्रयत्नशील रहें और मेरी प्रेरणा को पाकर घोड़नदी संघ पूर्ण रूप से जागरूक हो गया। सन् १९६८ का । परमादरणीय महामहिम उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के वर्षावास उपाध्यायश्री का घोड़नदी में हुआ। हमने भी गुरुदेवश्री के गुणों के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुना है। जिन श्रद्धालुओं ने उनके पुनः दर्शन अहमदनगर, पूना आदि में किए। जितनी-जितनी बार दर्शन किए, उनके मगंल पाठ को श्रवण किया, उनसे विचार दर्शन हुए उतनी-उतनी बार हम गुरुदेवश्री के अगाधज्ञान राशि में चर्चाएँ कीं, उनके प्रवचनों को सुना, वे उपाध्यायश्री के गुणों का से कुछ चिन्तन रूपी रल प्राप्त करते रहे, यह हमारा परम उत्कीर्तन करते समय इतने भाव-विभोर होते रहे हैं जिसका वर्णन सौभाग्य रहा।
लेखनी के द्वारा नहीं किया जा सकता। यद्यपि मैंने अपने चर्मसन् १९७० में उपाध्यायश्री की पावन प्रेरणा से बम्बई
चक्षुओं से उपाध्यायश्री के दर्शन नहीं किए किन्तु उनके गुणों को घाटकोपर में श्रमणी विद्यापीठ की स्थापना हुई, उस समय
सुनकर ही मेरा हृदय भावना से आपूरित होकर श्रद्धा सुमन गुरुदेवश्री ने श्रमणी विद्यापीठ में जो श्रमणियों को आगम और तत्व
समर्पित करने के लिए ललक रहा है। दर्शन का अध्ययन करवाया उसमें उपाध्यायश्री का गहन अध्ययन जैन शासन में "उपाध्याय" का गौरवपूर्ण स्थान है। परमेष्ठी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हो रहा था। वे आगमों के रहस्यों को । महामंत्र में उनका चौथा स्थान है, उपाध्याय ज्ञान {ज होता है। जिस सुगम रीति से प्रस्तुत करते थे सुनकर विद्यार्थी मंत्र मुग्ध हो । स्वयं अहर्निश ज्ञान और ध्यान में मस्त रहता है और दूसरों को भी जाता था। जब तक अध्ययन की गहराई नहीं होती वहाँ तक इस । ज्ञान ध्यान की पावन प्रेरणा देता है। परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री सच्चे प्रकार विश्लेषण करना बड़ा कठिन है। उपाध्यायश्री के १९७९ में । अर्थों में ज्ञानयोगी थे, उन्होंने स्वयं अनेकों बार आगमों का सिकन्दराबाद का वर्षावास संपन्न कर उपाध्यायश्री उदयपुर की। पारायण किया, उनके ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला। उनके
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