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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर ग्रन्थ बहुत ही गम्भीर और भावनाओं से व चिन्तन से लबालब भरे हुए हैं। जिस विषय पर उन्होंने लिखा है उस विषय के तलछट तक वे पहुंचे हैं। लगता है कि उन्होंने जिस विषय को छुआ उस पर हर पहलू पर उन्होंने लिखा है कोई भी ऐसा विषय नहीं रहा जिस पर उन्होंने चिन्तन नहीं किया है दान, ब्रह्मचर्य विज्ञान, श्रावक धर्म दर्शन ऐसे ही ग्रन्थ हैं जो अपने विषय के विश्वकोष कहे जा सकते हैं।
मैं अपनी ओर से तथा अपनी सद्गुरुणी तपोमूर्ति महासती हेमकुंवर जी म. की ओर से अपनी अनन्त आस्था उनके श्रीचरणों में समर्पित करती हूँ।
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शत शत वन्दन
-साध्वी मैना (शासन प्रभाविका पूज्या श्री यशकंवरजी म. सा. की शिष्या)
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[ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी पुराने चावल थे)
-शान्तिलाल पोखरणा "जैन", भीलवाड़ा वर्तमान युग में पुराने अनुभवी संत बहुत कम रह गए, उन्हीं में से उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता था। वे श्रमण संघ की आन, बान और शान थे। श्रमण संघ के निर्माण से आज तक उनका संगठन और एकता में विश्वास रहा, अतः अनेक झंझावातों के बावजूद उन्होंने कभी भी श्रमण संघ से पृथक् होने की बात नहीं सोची, बल्कि सदैव उनका प्रयास रहा कि जो भी कमियाँ श्रमण संघ में हैं, उन्हें सबके साथ मिल-बैठकर चिन्तन-मनन करके कैसे दूर किया जा सकता है। उनमें जोश भी था तो होश भी था। उनकी वाणी में माधुर्य झलकता था
और प्रत्येक श्रावक, श्राविका को पुण्यात्मा या भाग्यशाली कहकर पुकारते थे, जिससे प्रत्यके के मन में सहज ही परस्पर वात्सल्य भाव और श्रद्धा जग जाती थी और जो भी उनके सम्पर्क में आता आपका हो जाता। श्रद्धा ही समर्पण की ओर अग्रसर करती है और इसी को गीता में विश्वास, कुरान में यकीन और बाइबिल में फेथ कहा जाता है। श्रद्धा या विश्वास पर सारी दुनियाँ टिकी हुई है।
श्रमण संघ का गौरव है कि सम्पूर्ण जैन समाज-श्वेताम्बर या दिगम्बर में सबसे बड़ा संघ श्रमण संघ है, जिसमें आचार्यश्री जी की नेश्राय में करीब एक हजार साधु-साध्वियों का जन-जन में जिनशासन की प्रभावना करने के लिए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और पूर्व से पश्चिम तक विचरण होता है, जिससे न केवल हमारे ही देश में अपितु विश्व में अहिंसा के आधार पर भाईचारा, विश्व-बन्धुत्व की भावना व विश्व-शान्ति का बल मिलता है, इसी कारण तो ऐसे त्यागी वैरागी संतों से प्रभावित होकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन में जैन धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भगवान महावीर के दिव्य संदेश 'जीओ और जीने दो', 'सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर विश्व को नया रास्ता दिखाया और भारतवर्ष को अहिंसा के आधार पर आजाद कराया। कहते हैं चावल पुराना और घी नया अधिक लाभदायक होता है। वे श्रमण संघ में पुराने चावल की भाँति बड़े ही मँजे-मँजाये संत थे, उनकी वाणी में अपार ओज, व्यक्तित्व में गर्म जोश, व्यवहार में शालीनता और बोली में माधुर्य था।
गुरु कितना महान् है इसमें महानता नहीं है वरन् गुरु शिष्य को अपने से कई गुना अधिक महान् बना दे उसी की बलिहारी है। अनुभवी संत होने के नाते उन्होंने जान लिया था कि उनके पास शिष्य श्री देवेन्द्र मुनि जी के रूप में एक हीरा है। उन्होंने अपनी सारी शक्ति उसे तराशने में लाग दी, जिससे उनके जीते जी ऐसे महान् श्रमण संघ के तृतीय पट्ट पर २८ मार्च, ९३ को आचार्य पद पर श्री देवेन्द्र मुनि जी सुशोभित हुए। चन्द दिनों के पश्चात् ही ३ अप्रैल, ९३ को उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ने संथारा पूर्वक पण्डित मरण को प्राप्त किया, चतुर्विध संघ सदैव आपका ऋणी रहेगा, ऐसे उपाध्यायश्री के चरण में शत्-शत् वंदन अभिनन्दन और श्रद्धा-सुमन अर्पित।
पु- पुरुष वही जो इस जीवन में, छ षड् रिपु तज करे साधना । क- कथनी करनी की एकरूपता से, र- रत्न त्रय की करे आराधना ॥ मु- मुनित्व भाव में रमण करने को, नि- निशदिन जो तत्पर रहे। जी- जीवन खिला पावन सुमन सम, म- मकरन्द गुणों को जनता लहे॥ हा- हास-विलास से मुखड़ा मोड़ा, रा- राज्य शिवपुरी का पाने को। ज- जन जीवन को उपदेश दिया, सा- साधनामय जीवन अपनाने को॥ को-कोमल किसलय सम हृदय तुम्हारा, श- शतदल सम तव जीवन था। त- तरु कल्प सम आशा पूरण, श- शम दम प्रशम युत जीवन था॥ त- तप त्याग से जीवन महकाया, वं- वन्दन प्रतिपल करते हैं।
द- दमनेन्द्रिय (दयासिन्धु) के पावन चरण में, -न- नमन युत श्रद्धा पुष्प धरते हैं।
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