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लेकिन उसकी भावना भी प्रबल थी। उसने व्याख्यान के बीच में स्वतः ही मुनिवेश धारण करके स्वतः ही 'करेमि भन्ते' का पाठ पढ़कर प्रवज्या ग्रहण कर ली।
अब रायपुर में उसकी माता आग बगूला होकर सभा में उपस्थित हुई और आपश्री को मनचाही गालियाँ देने लगी- मानो गालियों का विश्वकोष ही उसने खोल दिया हो।
गुरुदेव मन्द, मधुर मुस्कान के साथ शान्तिपूर्वक उस महिला का गाली पुराण सुनते रहे।
जब उसने देखा कि यह शान्त साधु तो कुछ भी कहता नहीं, तनिक भी विचलित दिखाई नहीं देता तो थक थकाकर हाथ नचाते हुए बोली-"तुम्हारा सत्यानाश जाना।"
तब गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा- "माता ! सिर्फ सत्यानाश ही क्यों कहती हो ? अठ्यानाश कहो न! सत्यानाश में तो एक कर्म शेष रह जायेगा, जिससे मुक्ति नहीं होगी। अठ्यानाश होने पर ही मुक्ति होगी।"
गुरुदेव की इस अद्भुत सहनशीलता, इतने मधुर व्यवहार को देखकर वह महिला आश्चर्यचकित और लज्जा से पानी-पानी हो गई।
गुरुदेवश्री के चरणों में गिरकर बोली "क्षमा ! भगवन्! मोह के वशीभूत होकर मैंने आपको कटु वचन कह डाले। उचित-अनुचित का भी विचार मुझे नहीं रहा। आपश्री मुझे क्षमा प्रदान करें। आपकी शरण में आकर तो मेरे पुत्र का जन्म सार्थक हो गया।" डाकू साधु बना
प्रस्तुत वर्षावास में शान्तिमुनि ने मासखमण तप किया और ठाकुर गोविन्दसिंह जी के अत्याग्रह पर राजमहल में प्रवचन हुए। प्रवचनों का ऐसा सुन्दर और स्थायी प्रभाव पड़ा कि ठाकुर साहब ने मांस तथा मदिरा का त्यागकर दिया।
इस वर्षावास से पूर्व उस समय के दूर-दूर तक दहशत फैलाने वाले डाकू लक्ष्मणसिंह जी करमावास में आपके प्रवचन में उपस्थित हुए। आपके प्रभावी प्रवचनों को सुनकर उन्हें अपने कृत्यों पर ग्लानि हुई और बाद में डाकूपने का परित्याग करके वे वैदिक परम्परा के साधु बन गए ।
सत्संग का गहन प्रभाव इन दृष्टान्तों से प्रगट होता है। सत्संग वह सुधा है जिससे मनुष्य के जीवन में से दुर्गुणों का विष निकल जाता है।
सूखी रोटी का स्वाद
सन् १९४३ में आपका वर्षावास पीपाड़ में था । वर्षावास से पूर्व आप जोधपुर पधारे थे। मार्ग में चौदह मील का विहार कर आप एक प्याऊ पर ठहरे। उस प्याऊ की देख-रेख एक बाबा किया
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
करते थे। बाबा ने आपश्री को देखकर कहा 'एक जैन सेठ की बनाई हुई यह प्याऊ है। उनके आदेश से मैं यहाँ पर सदा सचित्त पानी रखता हूँ। वह पानी आप ग्रहण कर लीजिए, तथा मेरे पास दो सूखे और लूखे बाजरे के टिक्कड़ भी हैं। वे मेरे काम के नहीं हैं। आप चाहें तो उन्हें भी ले सकते हैं।
भयंकर गर्मी थी। गाँव दूर था। अब इस समय इतने लम्बे विहार के पश्चात् तेज गर्मी में गाँव में जाकर भिक्षा लाना संभव नहीं था। अतः आपश्री ने उस बाबा से एक टिक्कड़ ले लिया और उसे पानी में डुबो डुबोकर आधा-आधा खा लिया।
दूसरे दिन आप जोधपुर पहुँचे वहाँ गोचरी में बादाम और पिश्ते की कतलियाँ आईं। किन्तु आपश्री ने यह देखकर उस समय कहा- जो अमृतोपम स्वाद उस सूखे टिक्कड़ में था वह इन बादाम-पिश्ते की कतलियों में कहाँ ?
सत्य है, वास्तविक स्वाद और आनन्द भूख में है, किसी पदार्थ में नहीं। स्वाद के वशीभूत होकर आज मानव भाँति-भाँति के पकवान खाता है, किन्तु जो भी रूखा-सूखा भोजन परिश्रम करने के बाद कड़ी भूख लगने पर खाया जाता है, वही गुणकारी होता है।
दृढ़ मनोबल आपश्री के दृढ़ जाती है
सन् १९४४ का वर्षावास पूर्ण कर आपश्री उदयपुर पधारे। सायंकाल पाँच बजे आप गोचरी के लिए गए थे। उस दिन धूप तेज थी। गर्मी बहुत अधिक पड़ रही थी। भिक्षा लेकर लौटते समय आपको चक्कर आ गया और आप गिर पड़े किसी तेज, नुकीले पत्थर से आपके सिर में गहरी चोट लग गई। काफी खून बह गया। शरीर में शिथिलता आना स्वाभाविक था ।
मनोबल की झलक प्रस्तुत घटना से स्पष्ट मिल
बेहोशी ने भी धर दबाया।
थोड़ी देर बाद जब आपको होश आया तब आपने देखा कि लोग डोली में आपको स्थानक तक ले जाने की तैयारी कर रहे थे। यह देखकर आपश्री ने कहा- "मैं पैदल चलकर ही स्थानक तक जाऊँगा । डोली की आवश्यकता नहीं।"
आपश्री पैदल ही गए।
सूर्यास्त हो चला था, अतः आपने न टाँके लगवाए और न कोई दवा ही ली।
इसे कहते हैं मानव का दृढ़ मनोबल ।
निस्पृह योगी
अनासक्ति, संयम और त्याग-ये अध्यात्म जीवन के तीन अंग है। वे महान् साधक हैं जो मनसा, वाचा और कायेण उक्त तीनों की
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