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सद्गुणों की गूंज है, जो मानव मात्र को रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, बाह्य आडम्बर, क्रियाकाण्ड आदि से बचने की प्रेरणा देती है साथ ही आत्मा को बाह्य वेग-आवेग से हटाकर संवेग की ओर अग्रसर करती है। विचक्षण/विलक्षण प्रज्ञा के धनी होने के कारण आपश्री ने भगवान् महावीर के आचरणीय / मननीय सिद्धान्तों का सम्यक् अनुशीलन / परिशीलन कर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरल / सरस / सहज कथा- विधा में विवेचन किया है जो मानव मात्र को सम्यक् / यथार्थ दिशादर्शन देने में सक्षम है।
ज्ञानयोगी, वचनसिद्ध सद्गुरुदेवश्री बाल, युवा एवं वृद्ध सभी के लिये समान आकर्षण का केन्द्र थे। श्रमणसंघ में आपकी अपनी अलग ही पहचान थी। आपश्री अपने शिष्यों पर अत्यन्त वात्सल्य भाव रखते थे एवं उनसे मंत्रणा करके कार्य करते थे। धर्म-सभाओं में अपने सुयोग्य विद्वान शिष्यों की प्रशंसा करते हुए प्रायः कहा करते थे-'मेरी एक भुजा देवेन्द्र मुनिजी हैं तो दूसरी भुजा गणेश मुनिजी हैं।' शिष्य तो और भी हैं पर ये दोनों दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ एवं गुणों में श्रेष्ठ हैं। विद्वत्ता व लेखन कार्य में इन दोनों ने अनुपम कीर्ति अर्जित की है। परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. आज श्रमण संघ के नायक संघ शास्ता आचार्य पद पर आसीन हैं, जो ज्ञान दिवाकर समता, सागर और कलम कलाधर हैं।
उपाध्यायश्री जी के द्वितीय शिष्यरत्न परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री गणेश मुनिजी म. शास्त्री हैं जो साहित्य की प्रत्येक विधा एवं अद्यतन साहित्यिक शैली में अपनी रचनाओं के द्वारा अनुपम ख्याति प्राप्त कर रहे हैं।
आपश्री के एक गुरुभ्राता हैं, आगमज्ञाता पं. रत्न श्री हीरा मुनिजी म. सा. तथा शिष्यों में पं. रत्न श्री रमेश मुनिजी म., सन्त रत्न श्री दिनेश मुनिजी म., ओजस्वी वक्ता श्री नरेश मुनिजी म. । साथ ही चार पीत्र शिष्य हैं- जिनेन्द्र मुनि काव्यतीर्थ', डॉ. श्री राजेन्द्र मुनिजी महामहोपाध्याय, तरुण तपस्वी श्री प्रवीण मुनिजी म., नवदीक्षित श्री शालिभद्र मुनिजी म. एवं दो प्रपौत्र शिष्य हैं-श्री सुरेन्द्र मुनिजी, श्री गीतेश मुनिजी 'गीत'। इन सभी को विश्व - सन्त सद्गुरुदेव श्री ने सत् शिक्षा अहिंसा संयम का पीयूष पान कराया और शुभाशीर्वाद प्रदान किया। वस्तुतः वे एक संत मसीहा बनकर आये थे।
विराट् व्यक्तित्व के धनी गुरुदेव श्री द्वारा जप ध्यान-साधना के बाद त्रिकाल मांगलिक का मेघ बरसता तो उस अमृतधारा का रसपान करने हजारों-हजार नर-नारी उमड़ पड़ते थे, जिससे अनेकों श्रद्धालुजनों के नीरस जीवन में नई बहारें आ जाती थीं। आपश्री के महिमा मण्डित पावन प्रेरक सानिध्य से अनेकानेक व्यक्ति अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हुये, साथ ही अव्रती से व्रती एवं व्रती से महाव्रती बनकर जिन शासन की प्रभावना कर रहे हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जिसने भी आपश्री से किया साक्षात्कार, उसके सारे दूर हुये दुःख के अम्बार ।
हे करुणा के सागर गुरुवर, तेरी जग में जय-जयकार, वन्दन कर गुणगान करेंगे, कभी तो सुनना करुण-पुकार ॥ कदम-कदम पर फूल और कांटे आये,
पर न फूलों से सन्तुष्ट हुये न कांटों से रुष्ट । दोनों स्थितियों में अहर्निश करते रहे,
अपने अन्तर में समभाव को परिपुष्ट ॥
कुशल चिकित्सक की भाँति आपश्री ने जन-मन के जख्मों पर मैत्री करुणा / सम्प की मरहम पट्टियों की और की विषम भावों की शल्य चिकित्सा भी । राग-द्वेष के कांटों को निकालने के लिये विनय और विवेक की सुई का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया।
उपाध्यायश्री श्रमण संस्कृति के आधार थे। श्रमण संघ के अनुपम श्रृंगार थे । यह सिद्धान्त आप में साकार हो उठा था
चाह गई चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह । जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे शाहन के शाह ॥
जैनागमों के अनुसार पादपोपगमन- समाधिमरण मोक्षाभिलाषी साधक की सर्वोत्तम दशा मानी जाती है, इसमें अत्यन्त धैर्यशाली, कष्ट सहिष्णु एवं देहासक्ति से रहित साहसी साधक ही सफल हो सकते हैं। कारण कि यह साधना की चरम सीमा / कसौटी मानी गई है और इसमें आपश्री खरे उतरे हैं। आपने अपना जीवन अनासक्त योगी की भाँति जिया जैसे जल में कमल ऐसा प्रतीत होता था, उनके मन की आसक्तियों के सभी धागे टूट चुके थे अतः पल-पल समदर्शिता के संदर्शन हो रहे थे। वे अन्तिम दिनों में / क्षणों में परमानन्द में संलीन थे। न हिलना, न डुलना, न बोलना, न चलना, सब ओर से अपने आपको संवृत्त कर लिया था। प्रतिमा की भौति केवल दर्शनीय/ वन्दनीय / अभिनन्दनीय बन गये थे हजारों-हजार आँखें आप पर टिकी हुईं थीं, पर आप अपने आप में लीन थे।
मुझे रह-रह कर बचपन के वे सभी क्षण याद आने लगे, उनके अनगिनत असीम उपकार स्मृति पटल पर उभरने लगे। एक-एक घटना अन्तर्मन में गहराने लगी। पुनः पुनः दिल भर आता, घबराहट बढ़ जाती, पर मन को समझाता दादा गुरु की मुझ पर अपार कृपा-दृष्टि रही है। यह सब अतीत की मधुर स्मृति उभर आ रही है। इसी तथ्य को अपने भविष्य के लिए सोचता हूँ तो अज्ञात / प्रेरक भाव उभर कर आता है कि उनकी कृपा ही मेरे लिए निधि है, पाथेय है, जो कदम-कदम पर भविष्य में मेरा प्रशस्त मार्ग-दर्शन करती रहेगी।
उपाध्याय, ध्यानयोगी, मेरी असीम आस्था के केन्द्र, विश्व सन्त, दादा गुरुदेव श्री श्रमणसंघ की बगिया का एक महकता हुआ
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