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________________ 0660000000000000 श्रद्धा का लहराता समन्दर ३७ 05009009005 का जीवन हिमालय की तरह विराट् और सागर की तरह विशाल । अध्यात्मसिद्ध योगी : उपाध्यायश्री था। उनका जीवन निर्मल, विचार उदार एवं प्रकृति सरल व सरस थी। अध्यात्मयोगी परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री स्थानकवासी जैन संघ -श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ' के एक ज्योतिर्मान नक्षत्र थे। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी व संत (श्री गणेश मुनि शास्त्री के सुशिष्य) रत्न थे। आप कुशल कवि, सफल लेखक, तेजस्वी वक्ता, उत्कृष्ट साधक और संगठन के जीते-जागते पुजारी थे। श्रमणसंघ के निर्माण जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र, स्वनाम धन्य, प्रज्ञा पुरुषोत्तम, में और इसके विकास में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा। राजस्थान जन-जन की आस्था के केन्द्र, उपाध्याय, अध्यात्मयोगी, परम श्रद्धेय केशरी, अध्यात्मयोगी, प्रसिद्ध वक्ता, पंडित प्रवर श्रमणसंघ के एक पूज्य प्रवर दादा गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने १४ वर्ष की विशिष्ट संत थे। उनके जीवन में विविध विधाओं का सुन्दर संगम सुकोमल बालवय में धर्म का पावन पथ अपनाया। इस शैशवावस्था था। जहाँ उनमें श्रद्धा का प्राधान्य था वहाँ उनमें तर्क की प्रबलता में ही धर्म के अध्यात्म स्वरूप को समझा और हाथों में भी थी, जहाँ उनमें हृदय की सुकोमलता थी वहाँ उनमें अनुशासन । संयम-साधना की ज्योतिर्मान मशाल थामी एवं अपने गुरुदेव के प्रति कठोरता भी थी। उनके जीवन में जप और ध्यान के प्रति मरुधरा के महान सन्त रत्न, धर्म प्रभावक श्री ताराचन्द्र जी म. सा. अनुराग था तो संसार के भौतिक सुखों के प्रति विराग भी था, के साथ चल पड़े। यह ज्योति पुरुषोत्तम ही आगे चलकर देश के जहाँ संयम, साधना, तप, आराधना मनोमर्थन की अपेक्षा थी वहाँ । कोने-कोने में अभिनव धर्म-चेतना जागृत करने में समर्थ/सक्षम हुये। यश कामना के प्रति उपेक्षा भी थी। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व __आपश्री के नूतन प्रेरक चिन्तन से अनेकानेक साधकों की उपाध्याय श्री का था। जीवनधारा में अलौकिक परिवर्तन आया। आपश्री स्वप्न जगत में एक पाश्चात्य विचारक ने भी महान व्यक्ति के जीवन की विचरण करने वाले नहीं थे, वरन् यथार्थ की धरा पर जीने वाले विशेषताओं के बारे में लिखा कि श्रेष्ठ व्यक्ति की तीन पहचान हैं- मुमुक्षु साधक थे। (१) आयोजन में उदारता, (२) कार्य में मानवीयता तथा (३) उपाध्यायश्री विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। सरस्वती/जिनवाणी सफलता में संतुलन-यह सभी विशेषताएँ उपाध्याय श्री के जीवन में ने तो मानो आपकी जिह्वा पर ही अपना स्थायी आवास बना रखा साकार थीं, अतः वे श्रेष्ठतम संत थे। उनके सन्निकट जो भी आता, था। विभिन्न धर्म/सम्प्रदाय में विभक्त/खण्डित मानव-समाज को उनके जीवन-चरित्र की सौरभ से प्रफुल्लित हो जाता था, क्रोधी अखण्डित/संगठित होने का प्रेरक संदेश प्रदान कर आपने कीर्तिमान क्षमाशील हो जाता था। रोगी निरोगी हो जाता था ऐसा चमत्कार स्तम्भ स्थापित किया। साथ ही समाज/परिवारों में व्याप्त विषमताओं युक्त आपका जीवन था। के बिखरे कांटों को समता एवं शिक्षा की झाडू से साफ किया, मुझे सौभाग्य से जीवन में अनेक महापुरुषों के दर्शन का जिससे आज वहाँ धर्म, प्रेम, सम्प आदि के सुमन खिल रहे हैं। सुअवसर मिला, लेकिन उपाध्याय श्री से मिलने का मौका मुझे २४ बचपन से ही आपश्री प्रवचन कला में पट/कोविद रहे। यही मार्च, १९९३ को उदयपुर में आयोजित चादर महोत्सव पर मिला। कारण था कि आपश्री के प्रवचनों में शब्दों की लड़ी, भाषा की उस समय आपश्री ने आत्मीयता एवं माधुर्य के साथ शुभ आशीष कड़ी एवं तर्कों की झड़ी का अनुपम संयोजन रहता था। आपश्री की दिया। तत्पश्चात् कुछ ही समय बाद आप अस्वस्थ हो गये। ३ रसीली ओजस्वी वाणी की गूंज ने जन-जन के मन को मोहित कर अप्रैल, १९९३ को ४२ घंटे के संथारे-संलेखनापूर्वक समाधि-मरण दिया था। लौह चुम्बकीय प्रवचन शैली आकर्षक/अनूठी थी, जहाँ को प्राप्त कर जीवन का मोक्ष पाया। एक ओर आपके सम्बोधनों में अध्यात्म की गूढ़ता रहती थी वहीं दूसरी ओर उसमें हास्य का भी उचित सम्मिश्रण रहता था जो मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि उपाध्याय श्री का श्रोताओं के लिये सुगरकोटेड औषधि के समान कार्यकारी होता था। स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। आपका स्मृति ग्रंथ एक प्रचलित ध्यानयोगी सद्गुरुदेव श्री जहाँ-जहाँ भी पधारे वहाँ-वहाँ की परंपरा का पालन मात्र नहीं है किन्तु चिरस्मरणीय निर्माण की जनता ने अत्यन्त स्नेह, श्रद्धा एवं समर्पण भाव से अपनी गरिमा से आप अभिनंदनीय हैं। जनमानस जिस व्यक्ति के गौरवपूर्ण । विनयांजलियाँ समर्पित की तो आपश्री ने भी धर्म-ज्ञान का पुण्य व्यक्तित्व से प्रभावित होता है वही अभिनंदनीय है। प्रसाद जिज्ञासु-भक्तजनों में वितरण कर धर्म के नये-नये रहस्य मैं विश्वास करता हूँ कि स्मृति ग्रंथ के रूप में हमारी गुरु । उद्घाटित किये। भक्ति का जीवित उदाहरण एवं श्रद्धा सुमन के रूप में इस ग्रंथ को जैनागम रत्नाकर में गहन डुबकी लगाकर १११ भागों में 'जैन आने वाले वर्षों में आदर्श ग्रंथ के रूप में माना जायेगा एवं हजारों कथाएँ' मणिमुक्ताओं की अनुपम माला बनाकर पाठकों को पाठक इस ग्रंथ से लाभ उठायेंगे। अर्पित/समर्पित की है। वह आपश्री के गहन ज्ञान/चिन्तन का प्रतीक यही मेरी मंगल कामना है। हैं। इन कथाओं में नैतिकता, ईमानदारी, कर्त्तव्य-परायणता आदि RSS66650090629DDOID390RRiajanelibrary orgs FO2000.05pe DPSODDS For Private Personaluse Only SOODOOSDOGGEDIOSO900000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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