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दिनचर्या उनके परिमाणव्रत, बारहव्रत बारहतप को जीवन में उतारा जाये तो अनेक विनाशकारी तत्त्वों से बचा जा सकना संभव है। जैन शास्त्रों में गृहस्थ एवं साधू की जो जीवन शैली वर्णित है। उसमें किसी भी प्राणी, वनस्पति, जल, पृथ्वी, अग्निकायिक जीवों की विदारणा न हो इसका पूरा निर्देश है। आसक्ति से मुक्ति, इच्छाओं का शमन, प्राणीमात्र के प्रति करुणा उसके मूल में हैं। विचारों की स्वच्छता ऐसे ही भाव और भोजन से आती है जो रक्षण में सहायक तत्त्व होते हैं।
थोड़ा-सा और गहराई से विचार करें तो हमारा संबंध प्रकृति एवं उसके अंगों से कितना रहा है उसका प्रमाण है हमारे तीर्थंकरों के लांछन, उनके चैत्यवृक्ष इनमें पशु-पक्षी एवं वृक्षों की महत्ता है। हिन्दू शास्त्रों में जो चौबीस अवतार की चर्चा है उसमें भी जलचर, थलचर, नभचर पशु-पक्षियों का समावेश है। गाय को माता मानकर पूजा करना। पशुपालन की प्रथा क्या है ? वट वृक्ष की पूजा या वसन्त में पुष्पों की पूजा क्या प्रकृति का सन्मान नहीं । देवताओं के वाहन पशु-पक्षी हमारे उनके साथ आत्मीय संबंधों का ही प्रतिबिंव है। तात्पर्य कि पशु-पक्षियों और वनस्पति के साथ हमारा अभिन्न रिश्ता रहा है। कहा भी है-"यदि गमन या प्रवेश के समय सामने मुनिराज, घोड़ा, हाथी, गोवर, कलश या बैल दीख पड़े तो जिस कार्य के लिए जाते हों। वह सिद्ध हो जाता है। (हरिषेणवृहत्कथाकोश स्व. पं. इन्द्रलाल शास्त्री के लेख प्राकृत विद्या से साभार)
हमारे यहाँ शगुनशास्त्र में भी पशुपक्षियों का महत्त्व सिद्ध है। एक ध्यानाकर्षण वाली बात यह भी है कि हमारे जितने तीर्थकर, मुनि एवं सभी धर्मों के महान् तपस्वियों ने तपस्या के लिए पहाड़, गिरिकंदरा, नदी के किनारे जैसे प्राकृतिक स्थानों को ही चुना। प्रकृति की गोद में जो असीम सुख-शांति मिलती है, निर्दोष पशु-पक्षियों की जो मैत्री मिलती है वह अन्यत्र कहाँ ? तीर्थंकर के समवसरण में प्रथम प्रातिहार्य ही अशोक वृक्ष है। गंधोधक वर्षा में पुष्पों की महत्ता है। ज्योतिषशास्त्र की १२ राशियों में भी पशु-पक्षी की महत्ता स्वीकृत है। इस देश की संस्कृति ने तो विषैले सर्प को भी दूध पिलाने में पुण्य माना है तुलसी की पूजा की है और जल चढ़ाने की क्रिया द्वारा जल का महत्त्व एवं वृक्ष सिंचन को महत्ता प्रदान की है।
सम्राट अशोक या सिद्धराज कुमारपाल के राज्यों में गुरुओं की प्रेरणा से जो अमारि घोषणा ( हिंसा का पूर्ण निषेध हुई थी उसमें हिंसा से बचने के साथ परोक्ष रूप से तो पर्यावरण की ही रक्षा का
भाव था।
जैनदर्शन का जलगालन सिद्धांत, रात्रि भोजन का निषेध, अष्टमूल गुणों का स्वीकार इन्हीं भावनाओं की पुष्टि के प्रमाण हैं। कहा भी है " जैसा खाये अन्न वैसा उपजे मन। जैसा पीए पानी वैसी बोले वानी ।"
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जैनदर्शन मन-वचन-काय की एकाग्रता और संयम पर जोर देता है। 'मौन' पर उसने विशेष जोर दिया। सामायिक, ध्यान, योग में मौन की महत्ता है। वास्तव में जितना उत्तम चिंतन मौन में होता है उतना अन्यत्र नहीं। आज 'आवाज' का प्रदूषण भी कम खतरनाक नहीं है। निरंतर आवाजें ध्वनियंत्र की चीखें, रेडियोटेलीविजन के शोर ने मानव की चिंतन शक्ति खो दी है। उसके शुद्ध विचारों पर इनका इतना आक्रमण हुआ है कि वह अच्छा सोच ही नहीं पाता। इस प्रकार पूरे निबंध का निष्कर्ष यही है कि यदि हम हिंसा से बचें, पंचास्तिकायिक जीवों की रक्षा करना सीखें, भोजन का संयम रखते हुए जीवन शैली में योग्य परिवर्तन करें तो हम सृष्टि के मूल स्वरूप को बचा सकते हैं।
इसके उपाय स्वरूप हमें वायु, जल एवं ध्वनि के प्रदूषण को रोकना होगा।
वृक्षों की सुरक्षा करनी होगी। कटे वनों में पुनः वृक्षारोपण करना होगा। जिससे हवा में संतुलन हो । भूस्खलन रोके जा सकें। ऋतुओं को असंतुलित होने से बचाया जा सके। शुद्ध वायु की प्राप्ति हो हिंसात्मक भोजन, शिकार एवं फैशन के लिए की जाने वाली हिंसा से बचना होगा।
कलकारखानों की गंदगी से जल को बचाना होगा। हवा में फैलती जहरीली गैस से बचना होगा। जैनदर्शन की दृष्टि को विश्व में प्रचारित करते हुए परस्पर ऐक्य । प्रेम एवं 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की भावना के संदर्भ में सह-अस्तित्व एवं प्राणीमात्र के प्रति दया, ममता, प्रेम, आदर एवं मैत्री के भाव का विकास करना होगा। गीत की ये पंक्तियाँ सजीव करनी होंगी
"तुम खुद जिओ जीने दो जमाने में सभी को, अपने से कम न समझो सुख-दुख में किसी को।"
सर्वे भवन्तु सुखिनः के मूल मंत्र के साथ याद रखना होगा वह सिद्धांत
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सये ।
जयं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पापं ण वज्झई।
यदि हम सामूहिक आत्महत्या से अपने आपको बचाना चाहते हैं तो हमे पर्यावरण की रक्षा पर पूरा सहिष्णुता पूर्वक ध्यान देना होगा।
पता :
डॉ. शेखरचन्द्र जैन
प्रधान संम्पादक "तीर्थंकरवाणी"
६, उमिया देवी सोसायटी
नं. २ अमराईबाडी, अहमदाबाद