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2005909
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ । आज है गुरुदेव की जन्मजयंती!
ताराचन्दजी महाराज ध्यानस्थ थे और उन्हीं के परिपार्श्व में आसीन
थे गुरुदेव! मैंने देखा उस दिव्य आकृति को, सहसा स्मृतियां सजीव कल है शरद पूर्णिमा!
हो उठीं और मेरी वाणी के स्वर फूट पड़े-“यही आकृति थी मेरे आज का शीतल चन्द्र अपनी निर्मल शुभ्र किरणों से अमृत की ।
स्वप्न में! यही है मेरे गुरुदेव! ऐसा ही नाक-नक्श! मधुर हास! वर्षा कर रहा है। दूधिया बन गई है चाँदनी रात!
और अमृत वर्षती आँखें ! मैं इन्हीं का शिष्य बनूँगा।" अमृत से भीगा-भीगा शीतल पवन स्पर्श! चन्द्र ज्योत्सना में
इस घटना की स्मृति होते-होते आज भी रोमांच हो उठता है। स्नात निरभ्र नील गगन!
जब मैंने पहले दिन, पहली बार, पूज्य गुरुदेव के दर्शन किये थे चातक पक्षी एक टक इन अमृतवर्षी किरणों का पान कर । मेरी आत्मा में कितनी पुलक थी, कितना आनन्द था! मन के सागर अंगारे चुग रहा है।
में उल्लास उर्मियाँ तरंगित हो रही हैं। उस सुखद अनुभूति की सहस्रदल कुमुद जैसे हजार-हजार हाथों से बरसते अमृत कणों
अपूर्व अनुस्मृति को शब्दों की पकड़ में नहीं बांध पाता हूँ। को बटोर-बटोर कर अमृत-पराग जुटा रहा है।
इसे केवल एक संयोग नहीं कहा जा सकता। पूर्वजन्म का हिमगिरि के निर्जन वन उपवन में पुष्पित संजीवनी चन्द्र किरण
संस्कार, पूर्वजन्म का ऋणानुबन्ध या कर्मशास्त्र की भाषा में
भवान्तरीय स्नेहानुबंध कहना हो तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। का पान कर अमृतमयी बन रही हैं और सुधावर्षी शशिकर की शीतल स्नेहिल किरणों का स्पर्श पाकर मेरे मन में मधुर-मधुर
मेरे मन की संकल्प भूमि में उसी दिन वह संस्कार बीज स्मृतियाँ अंगडाई भर रही हैं।
अंकुरित हो उठा-“यही हैं मेरे गुरुदेव! मैं इन्हीं का शिष्य बनूँगा।" मैं सुदूर अतीत में विचर रहा हूँ। जाति स्मृति न सही, पर मेरा स्वप्न सच हुआ। उनके वात्सल्य का अमिट रस पाकर अतीत की स्मृतियों परत दर परत उघड़ रही हैं और अनुभूतियों के मेरा जीवन कृतकृत्य हुआ। बचपन की वे मीठी-मीठी यादें अनन्त स्वर्णिम चित्र अनावृत हो रहे हैं।
वात्सल्य रसववर्षिणी गुरुदेव की वाणी, माँ के आंचल की तरह
शीतल सुखद उनका सान्निध्य! मुझे जीवन भर कृतार्थ करता रहा। पूज्य गुरुदेव! मेरे गुरुदेव! जीवनदाता गुरुदेव! मेरे ज्योति पुरुष गुरुदेव! मेरे मनोमय देव मन्दिर के स्मृति-स्वर्ण सिंहासन पर आज एकांत क्षणों में बैठकर सोचता हूँ, सहसा गुरुदेव की यह विराजमान हो रहे हैं। एक दिव्य आलोक छितरा रहा है, जिसकी
| भव्य छवि मेरे मन के आइने में उभर-उभर आती हैं। उनके विराट् नयन भावनी प्रकाश छटा में मैं देख रहा हूँ अपना अतीत, बचपन । व्यक्तित्व को अगर वट वृक्ष से उपमित करूं तो लगता है बरगद का वह मीठा-मीठा रस-स्रोत जो बन गया है-एक मीठा सपना। की तरह उनका व्यक्तित्व सबके लिए शुभंकर, सुखकर था। एक रात मैंने देखा एक स्वप्न! सचमुच स्वप्न!
जिस प्रकार बरगद के नीचे बूढ़े लोग अलाव डालकर यादों
और अनुभवों की जुगाली करते हैं, बच्चे उसकी टहनियों का ___ स्वप्नलोक की परी-सा जादुई सुहावना और पहले कभी नहीं
पलना बनाकर झूलते हैं, युवक बैठे बतियाते अपने सपनों के देखा ऐसा अपूर्व उल्लासमय!
ताने-बाने बुनते हैं, ठीक वैसे ही पूज्य गुरुदेव के चरणों की शीतल एक ध्यानस्थ दिव्य पुरुष! गौरवर्ण भव्य ललाट! अमृत चषक। छाँव में प्रत्येक आयु वर्ग के, हर विचार के, हर सम्प्रदाय के व्यक्ति सी बड़ी-बड़ी स्नेहिल आँखें! मन्द-मन्द मुस्कराता मुखड़ा! श्वेत मुख । आकर अनुपम आत्मीयता का अनुभव करते थे। एक सन्त के वस्त्रिका! कुछ उजली-उजली कुछ मटमैली-चादर से लिपटा सम्पुष्ट सर्वमंगल सानिध्य के रूप में सबको सुख-शांति आनन्द- सन्तोष शरीर! जिसके परिपार्श्व में फैल रहा है स्वर्णिम प्रभामंडल!
और समाधान की अनुभूति होती थी। मैं भाव-विभोर होकर कर रहा हूँ दर्शन-मन्थएण वंदामि!
ऐसे श्रद्धा लोक के देवता, साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव आशीर्वाद का उठा हाथ मुझे दे रहा है वरदान ! 'धन्ना'! दया । आज हमार बाच उपस्थित नहीं है। साधना का वह स्वाणम सूरज
अस्ताचल की गोद में छुप गया, किन्तु सूरज छिपने के बाद भी
उसका स्वर्णिम आलोक धरा-गगन को आलोकित करता रहता है। आँखें खुल गईं, स्वप्न टूट गया।
उसकी जीवन दायिनी ऊष्मा प्राणियों में ऊर्ध्वस्विल होती रही है। स्मृतियों के मोती जैसे बिखर गये। मैंने कहा माताजी से मैंने | इसी प्रकार श्रद्धालोक के उस सूरज की भाव रश्मियां, उनकी स्वप्न देखा है, एक देव पुरुष जो होंगे मेरे गुरुदेव, मुझे दे रहे हैं। स्मृतियां, उनकी अनुकृतियां, उनके वात्सल्य की अनुभूतियां, उनके आशीर्वाद!
अमर हस्ताक्षरों से मंडित कृतियां, आज हमारी चेतना में मूर्तिमंत लगभग एक माह बाद एक दिन माताजी के साथ मैं गया था ।
हैं, जीवंत है, और युग-युग तक जीवन्त रहेगी। गुरुदेव ताराचन्दजी म. सा. के दर्शन करने। बड़े गुरुदेव श्री श्रद्धा लोक के देवता के चरणों में हमारी विनयांजलि!
पालो!
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