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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
सातत्य से वह स्व कल्याण तो करते ही हैं किन्तु पर-कल्याण हेतु वे आगम की आँख से देखकर कल्याणकारी बातों का उपदेशनिर्देश भी दिया करते हैं। मंगली पाठ आशीर्वचन की भाँति उत्तम उद्बोधन स्वरूप है।
संसार में चार ही मंगल उत्कृष्ट है। अरिहंत मंगल हैं, सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं और केवली द्वारा प्रज्ञप्त धर्म मंगल है।
लोक में चार पदार्थ सर्वश्रेष्ठ है-अरिहंत श्रेष्ठ है, सिद्ध श्रेष्ठ हैं, साधु श्रेष्ठ हैं और केवली द्वारा प्रज्ञाप्त धर्म श्रेष्ठ है।
लोक में चार ही श्रेष्ठ शरण हैं जिनकी शरण में जाता है। अरिहंतों की शरण में जाता हूँ, सिद्धों की शरण में जाता हूँ, साधुओं की शरण में जाता है, और केवली द्वारा प्रज्ञप्त धर्म की शरण में जाता हूँ।
इस अनुपाठ अनुगूंज के साथ साथ भक्तों को भगवंत महावीर को मंगल रूप स्वीकारता है, महामनीषी गीतम गणधर को मंगल रूप मानता है तथा अन्त में आचार्य स्थूलभद्र तथा जैन धर्म को मंगल रूप का स्तव करता है। इस पाठ के साथ वह भक्त के कल्याण की मंगल कामना करते हैं। श्रमण चर्या में, 'मंगली पाठ' एक आवश्यक अंग है।
श्रमण या साधु के आत्म साधना के लिए उत्तम उत्कृष्ट मंगल है तप । श्रमण श्रमणत्व स्वीकार कर सर्वप्रथम आगम साहित्य का गहन पाठ करता है। तत्पश्चात् उत्कृष्ट तपःकर्म का आचरण करता है इसी से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
रजोहरण- श्रमण समुदाय के संक्षिप्त किन्तु मुख्य उपकरणों में रजोहरण एक है। यह शब्द दो उपशब्दों से गठित है-रज तथा हर धूल कणों को दूर करने का उपकरण ।
रजोहरण का निर्माण पाँच प्रकार के धागों के योग से बनता है। उनके नाम निम्न प्रकार से हैं
औरणिक
औष्ट्रिक
सानक बच्चक-चिप्पक मुख्य-चिपक
औरणिक वस्तुतः ऊन के धागे कहलाते हैं औष्ट्रिक से तात्पर्य ऊँट के बालों के धागे । सानक शब्द का सम्बन्ध सन से है। सन की छाल के धागे वच्चक चिप्पक एक तृण विशेष की कुट्टी से निर्मित धागे तथा मुञ्ज-चिप्पण से तात्पर्य मूँज । इसके कुट्टी से निर्मित धागे । इन धागों से रजोहरण का निर्माण किया जाता है। जो पदार्थ जिस क्षेत्र में सहज रूप से उपलब्ध हो जाता है, उसी के द्वारा इस उपकरण का निर्माण करने का विधान है। आधुनिककाल में अधिकांशतः कपड़े के धागों अर्थात् सूती धागों और ऊन के धागों
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का रजोहरण तैयार किया जाता है। एक चिकनी लकड़ी में इन धागों को कलात्मक ढंग से बनाया जाता है।
बैठते, अथवा लेटते समय स्थान को चीउंटी अथवा छोटे-छोटे कृमिकीटो की रक्षार्थ रजोहरण का उपयोग किया जाता है चलते समय मार्ग में यदि किसी प्रकार के जीवों की विराधना होने की सम्भावना होती है तो रजोहरण के द्वारा श्रमण उनकी रक्षा करता है।
वर्षावास ( चौमासा) - श्रमण अथवा साधु स्थान-स्थान पर विचरणशील जीवन व्यतीत करता है। साधु प्रायः पदयात्री होता है। उनमें स्थान के प्रति मोह जाग्रत न हो अतः साधु एक स्थान पर अधिक काल तक प्रवास न करने का विधान है। एक ही स्थान पर वर्षावास में चार माह की दीर्घाति दीर्घ अवधि तक प्रवास कर सकता है। इसी अवधि तक वास को वर्षावास कहते हैं वर्षावास को वास वास, चातुर्मास पढम समोसरण ठपणा, जेट्टोग्गह भी कहा जाता है।
एक स्थान पर चार मास तक निवास करने से इसे 'बास- बास' कहा गया है। वर्षा ऋतु में एक ही स्थान में रहने से इसे चातुर्मास कहते हैं। प्रावृट ऋतु में चार महीने की दीर्घ अवधि तक एक ही स्थान पर प्रवास रखने पर 'पढ़म समोसरण' कहा जाता है। ऋतुओं की विभिन्न मर्यादाओं के कारण लम्बी अवधि तक एक ही स्थान पर ठहरने पर इसे ठवणा भी कहा जाता है।
दर असल साधु क्षेत्रावग्रह करता है। वर्षाकाल में चार मास का एक साथ क्षेत्र अवग्रह करने से "जेट्ठोग्गह' कहा जाता है। इसका हिन्दी रूप है 'ज्येष्ठावग्रह' ।
वर्षावास श्रावण कृष्णा पंचमी, श्रावणा कृष्णा दशमी तथा श्रावण कृष्णा पंचदशमी अर्थात् अमावस्या तक वर्षावास स्थिर करना होता है।
वर्षावास में साधु प्रायः विहार नहीं करता किन्तु यदि ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए आचार्य और उपाध्याय के लिए आदेश पर इनकी वैयावृत्व के लिए साधु स्थान परिवर्तन कर
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सकता है। प्राकृतिक द्वन्द्व और दुकाल-प्रकोप तथा धर्म संकट के अवसर पर भी स्थान त्यागने का विधान है। वर्षावास की अवधि व्यतीत हो जाने पर भी यदि विहार करने योग्य परिस्थिति न हो तो साधु संचार व्यवस्था न होने तक उसी स्थान पर और रह सकता है। वर्षावास पंच समितियों से सम्बन्धित तेरह प्रकार की सुविधाओं से सम्पृक्त क्षेत्र को चयन करना श्रेयस्कर है।
समाचारी- समाचारी वह विशिष्ट क्रिया-कलाप है जो साधु-चर्या के लिए मौलिक नियमों की भौति अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य सत्कर्म है। श्रमण अथवा साधु आचार को मूलतः दो भागों में विभक्त किया गया है
१. व्रतात्मक आचार। २. व्यवहारात्मक आचार।
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