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} तल से शिखर तक
२४७ चर्चा की। गुरुदेव श्री के सौजन्ययुक्त स्वभाव से वे बहुत ही गुरुदेव-'भिक्षु दृष्टान्त' की तरह उस युग के दृष्टान्तों के प्रभावित हुए। विस्तार भय से उन सभी चर्चाओं का अंकन हम यहाँ संकलन भिक्षु दृष्टान्त के खण्डन रूप में हैं, वह मेरे पास में हैं, नहीं कर रहे हैं।
जिसे पढ़कर पाठक के मन में राग-द्वेष की अग्नि भड़क उठे, क्या
उसका भी प्रकाशन होना चाहिए? आगमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजय जी म.
गुरुदेव श्री ने जीतमल जी म., कविवर नेमिचन्द्र जी म. के सादड़ी सन्त-समागम के अवसर पर आगम प्रभावक मुनि श्री
पद भी सुनाए जिनमें तेरापन्थ के सम्बन्ध में कटु आलोचना थी। जो पुण्यविजय जी से गुरुदेव की भेंट हुई। व्यस्तता में अधिक चर्चा न
उस युग की भावना का चित्र था। जिसे सुनकर आचार्य तुलसी जी हो सकी। किन्तु सन् १९७० में बम्बई, बालकेश्वर में अनेकों बार
के चेहरे से ऐसा परिज्ञान हो रहा था मानो 'भिक्षु दृष्टान्त' का आपश्री की आगम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकाएँ आदि के रहस्यों
प्रकाशन करवा कर उचित नहीं किया। क्योंकि जिसकी को लेकर विचार-चचएिँ हुईं। वे चर्चाएँ अत्यन्त ज्ञानवर्धक थीं।
प्रतिक्रियास्वरूप ऐसा साहित्य प्रकाशित कराया जायगा तो उससे गुरुदेव श्री ने अनेक बातें जो स्थानकवासी परम्परा में धारणा
दरार बढ़ेगी, घटेगी नहीं। व्यवहार के रूप में चल रही थीं, वे आपश्री को बताई। उन्हें सुनकर आपश्री ने कहा-जो बातें धारणाओं से चल रही हैं वे बहुत
दूसरी बार जैन एकता को लेकर जोधपुर में गुरुदेव श्री आदि महत्त्वपूर्ण हैं। आगमों के बहुत से रहस्य जो आगम और व्याख्या
से लगभग एक घण्टे वार्तालाप हुआ। यह वार्तालाप अत्यन्त साहित्य से स्पष्ट नहीं होते वे इनसे स्पष्ट हो जाते हैं। आगम
स्नेह-सौजन्यपूर्ण क्षणों में सम्पन्न हुआ। इस वार्तालाप में उपाध्याय प्रभावक जी ने यह भी कहा कि स्थानकवासी परम्पराओं की
श्री हस्तीमल जी महाराज भी सम्मिलित थे। गुरुदेव श्री ने बताया धारणाओं का एक संकलन हो जाय तो आगमों के रहस्य को
कि जैन एकता की अत्यन्त आवश्यकता है। यदि हम इस सम्बन्ध में समझने में बहुत उपयोगी हो।
जागरूक न हुए तो आने वाली पीढ़ी हमारे सम्बन्ध में विचार
करेगी। और वह एकता तभी सम्भव है जबकि केवल मंच पर ही आचार्य श्री तुलसी
नहीं, व्यवहार में ऐसा कार्य किया जाय जिससे एकता में बाधा मगुरुदेव श्री का आचार्य तुलसी जी से तीन बार मिलन हुआ। उपस्थित न हो। दोनों ओर से यह प्रयास होना चाहिए। एक ओर प्रथम बार सन् १९६१ में सरदारगढ़ (राज.) में तथा द्वितीय बार । का प्रयास सफल नहीं हो सकता। सन् १९६५ में जोधपुर में और तृतीय बार सन् १९८६ में ब्यावर आचार्य तुलसी जी ने भी गुरुदेव श्री के स्वर में स्वर मिलाते में। प्रथम भेट में आचार्य श्री तुलसी जी ने तेरापन्थ समुदाय के
हुए कहा-आपका चिन्तन सुलझा हुआ है, तथा उसी दृष्टि से हम द्वारा प्रकाशित अपना सम्पूर्ण साहित्य गुरुदेव श्री को भेंट किया। प्रयत्न करेंगे तभी सफल हो सकेंगे। दूसरे दिन प्रातःकाल शौच से निवृत्त होकर लौटते समय आचार्य
तीसरी बार ब्यावर में गुरुदेव श्री अस्वस्थ थे, ज्वर से ग्रसित श्री के साथ आपकी भेंट हुई। आचार्य श्री तुलसी जी ने गुरुदेव श्री
थे। आचार्य श्री तुलसी जी से मेरा शौच भूमि में जाते समय मिलन से पूछा-कल हमने साहित्य प्रेषित किया था, वह आपने देखा होगा।
हुआ। आचार्य श्री ने पूछा कि उपाध्याय पुष्कर मुनि जी जंगल के वह आपको कैसा लगा?
लिए क्यों नहीं पधारे। मैंने उन्हें बताया कि ज्वर के कारण नहीं गुरुदेव श्री ने कहा-साहित्य के क्षेत्र में आपकी प्रगति देखकर पधार सके। आचार्य श्री स्वयं चलकर पीपलिया बाजार में स्थित मन में आह्लाद होता है। आप संगठन व जैन एकता के प्रबल } स्थानक में गुरुदेव श्री की साता पूछने के लिए पधारे। वार्तालाप पक्षधर हैं तो आपके द्वारा साहित्य भी वैसा ही प्रकाशित होना हुआ और मैंने अपना साहित्य उन्हें भेंट किया। चाहिए जो एकता की दृष्टि से सहायक हो। जिस साहित्य से
गुरुदेव श्री का व्यक्तित्व महान् था। हृदय निर्मल था। दृष्टि विघटन उत्पन्न होता है, राग-द्वेष की अभिवृद्धि होती है, उसका
व्यापक थी। अतः इस प्रकार राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षिक, प्रकाशन कराना आज के युग में कहाँ तक उपयुक्त है?
आध्यात्मिक प्रभृति विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित शताधिक व्यक्ति, आचार्य तुलसी-ऐसा कौन-सा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ जो आपकी चिन्तक व मूर्धन्य मनीषीगण उनके पावन सम्पर्क में आते रहे। दृष्टि से अनुचित है?
विस्तार के भय से वे सभी संस्करण यहाँ नहीं दिए जा सकते।
आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, आचार्य श्री काशीराम जी गुरुदेव श्री-'भिक्षु दृष्टान्त' जैसे ग्रन्थ का प्रकाशन मैं उचित
महाराज, गणी उदयचन्द जी महाराज, आचार्य श्री जवाहरलाल जी नहीं मानता।
महाराज, उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज, आचार्य श्री आचार्य तुलसी-'भिक्षु दृष्टान्त' में अनेक ऐतिहासिक सत्य तथ्य नानालाल जी महाराज, आचार्य हस्तीमल जी म., आचार्य खूबचन्द रहे हुए हैं, अतः उनका प्रकाशन कराना उचित समझा गया। जी म., आचार्य श्री सहस्रमल जी म., जैन दिवाकर चौथमल जी
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