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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
१०. उद्दण्डता
आचार्य जिनसेन ने१८ इन्हें विस्तार देकर १४ कारण
शिक्षा में विनय एवं अनुशासन बताये हैं।
जैन शिक्षा पद्धति के विभिन्न अंगों व नियम-उपनियमों पर १. कठोर परिणामी
दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा-प्राप्ति में विनय तथा २. सार छोड़कर निस्सार ग्रहण करना
अनुशासन का सर्वाधिक महत्त्व है। विनीत शिष्य ही गुरुजनों से ३. विषयी
शिक्षा प्राप्त कर सकता है और उसी की शिक्षा फलवती होती है। ४. हिंसक वृत्ति
शिक्षा जीवन का संस्कार तभी बनती है, जब विद्यार्थी गुरु व विद्या
के प्रति समर्पित होगा। भगवान महावीर की अन्तिम देशना का सार | ५. शब्द ज्ञान व अर्थज्ञान की कमी
उत्तराध्ययन सूत्र में है। उत्तराध्ययन सूत्र का सार प्रथम विनय ६. धूर्तता
अध्ययन है। विनय अध्ययन में गुरु शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध ७. कृतघ्नता
शिक्षा ग्रहण की विधि, गुरु से प्रश्न करने की विधि, गुरुजनों के ८. ग्रहण शक्ति का अभाव
समीप बैठने की सभ्यता, बोलने की सभ्यता आदि विषयों पर बहुत ९. दुर्गुण दृष्टि
ही विशद प्रकाश डाला गया है। वहाँ विनय को व्यापक अर्थ में
लिया गया है। ११. प्रतिभा की कमी
कहा गया है-गुरुओं का आज्ञा पालन करना, गुरुजनों के
समीप रहना, उनके मनोभावों क समझने की चतुरता, यह विनीत १२. स्मरण शक्ति का अभाव
का लक्षण है।२० १३. धारणा शक्ति का अभाव
विनय को धर्म का मूल माना है और उसका अन्तिम परम फल १४. हठग्राहिता।
है-मोक्ष/निर्वाण।२१ उत्तराध्ययन में शील, सदाचार और अनुशासन ये सब अयोग्यता शिक्षार्थी में मानसिक कुण्ठा तथा उच्चको भी विनय में सम्मिलित किया गया है। और कहा हैचारित्रिक गुणों के अभाव की सूचक है। जब तक विद्यार्थी में अणुसासिओ न कुप्पिज्जा खंति सेविज्ज पंडिए।२२ गुरुजनों का चारित्रिक विकास और भावात्मक गुणों की वृद्धि नहीं होती वह अनुशासन होने पर उन पर कुपित नहीं होवे, किंतु विनीत शिष्य ज्ञान या शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। आचार्य भद्रबाहु ने क्षमा और सहिष्णुता धारण करके उनसे ज्ञान प्राप्त करता रहे। आवश्यक नियुक्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिन इसी प्रसंग में गुरुजनों के समक्ष बोलने की सभ्यता पर विचार भद्रगणी ने अनेक प्रकार की उपमाएँ देकर शिक्षार्थी की अयोग्यता किया गया है। का रोचक वर्णन किया है।१९ जैसे
नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियंवए२३ १. शैलघन-जिस प्रकार मूसलाधार मेघ वर्षने पर भी पत्थर
गुरुजनों के बिना पूछे नहीं बोले, पूछने पर कभी असत्य नहीं (शैल) कभी आई या मृदु नहीं हो सकता। उसी प्रकार कुछ शिष्य
बोले। ऐसे होते हैं जिन पर गुरुजनों की शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं
गुरु किसी से बात करते हुए हों तो उनके बीच में भी नहीं पड़ता।
बोले।२४ इसी प्रकार भग्नघट, चालनी के समान जो विद्यार्थी होते हैं,
गुरु विनय के चार लक्षण बताते हुए कहा हैउन्हें गुरु ज्ञान या विद्या देते हैं, परन्तु उनके हृदय में वह टिक नहीं पाता। महिष-भैंसा जिस प्रकार जलाशय में घुसकर जल तो कम १. गुरुओं के आने पर खड़ा होना पीता है, परन्तु जल को गंदला बहुत करता है, उसी प्रकार कुछ २. हाथ जोड़ना विद्यार्थी, गुरुजनों से ज्ञान तो कम ले पाते हैं, परन्तु उन्हें उद्विग्न
३. गुरुजनों को आसन देना या खिन्न बहुत कर देते है। गुरु ज्ञान देते-देते परेशान हो जाते हैं। इसी प्रकार मेढा, तोता, मच्छर, बिल्ली आदि के समान जो शिष्य
४. गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रूषा-सेवा करना होते हैं वे गुरुजनों को क्षुब्ध व परेशान तो करते रहते हैं परन्तु
विनय के ये चार लक्षण हैं।२५ ज्ञान प्राप्त करने में असफल रहते हैं। अगर ज्ञान की यकिंचित वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक प्राप्ति कर भी लेते हैं तो वह उनके लिए फलदायी नहीं, कष्टदायी | प्रकार है, दूसरा प्रकार है शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता और ही सिद्ध होती है।
व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप रहने वाला,
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