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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ज्यपानी का नल चलने लगता है, वह पानी बहाने लगता है। इसी नाड़ी संस्थान जब निर्मल होता है, तब चेतना की शक्तिमत्ता बढ़ POOD प्रकार आज के वैज्ञानिक-प्रयोगनिष्पन्न चिकित्सक ध्वनितरंगों से । जाती है। शब्द अर्थ (पदार्थ) से संयुक्त होने लगता है। बिना शस्त्र लगाये ऑपरेशन कर देते हैं। ध्वनि तरंगों से बड़ी से ।
मंत्रोच्चारण की विधि से लाभ, अविधि से नहीं 30000 बड़ी चट्टान को तोड़ा जा सकता है। शब्दशक्ति के द्वारा बड़े से बड़े । अपराधी का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है।
अतः मंत्रजप से यथेष्ट लाभान्वित होने का प्रथम तत्त्व है
मंत्रगत शब्दों का यथार्थ विधिपूर्वक उच्चारण। जब तक मंत्र के त्रिशब्दात्मक मंत्र का चमत्कार
उच्चारण की विधि नहीं आती, तब तक उस मंत्र से जो लाभ होना चिलातीपुत्र नामी चोर था। वह अपनी टोली के साथ आया । चाहिए, वह नहीं हो पाता। व्याकरणशास्त्र में कण्ठ, मूर्धा, दन्त, पम और सुषमा नाम की श्रेष्ठिकन्या का अपहरण करके ले गया। श्रेष्ठी । तालु, ओष्ठ, नासिका, जिह्वामूल और वक्ष, ये आठ स्थान उच्चारण
ने पुलिस की सहायता से उसका पीछा किया। वह दौड़ते-दौड़ते थक के माने जाते हैं। परन्तु मंत्रशास्त्र में इससे भी सूक्ष्म अवस्था है गया। अतः पुलिस और श्रेष्ठी को चकमा देने के लिए उसने सुषमा ।
उच्चारण की। साधारणतया मंत्र के उच्चारण का प्रारम्भ मूलाधार की हत्या कर दी और एक हाथ में रक्तलिप्त तलवार और दूसरे ।
या शक्तिकेन्द्र से होता है, फिर वह क्रमशः तैजसकेन्द्र, आनन्दकेन्द्र हाथ में मृत सुषमा का मस्तक लेकर दौड़ता गया। मार्ग में एक ।
और विशुद्धिकेन्द्र को पार करके ताल के पास से गुजरता है और मुनिवर ध्यानमुद्रा में खड़े थे। चिलातीपुत्र उनके पास जाकर कहने
दर्शनकेन्द्र अर्थात् भ्रूकुटि के मध्य भाग तक पहुँच जाता है। उस लगा-"मुझे शीघ्र मोक्ष का मंत्र बताइए, नहीं तो आपका मस्तक भी
स्थिति में उक्त मंत्र से तेजस्विता अभिव्यक्त होती है। मैं धड़ से अलग कर दूंगा।" मुनिवर ने उसकी मनःस्थिति देखकर - मंत्रों के उच्चारण के सम्बन्ध में मंत्रशास्त्रविदों का कथन है कि त्रिशब्दात्मक मंत्र का उच्चारण किया-'उपशम, संवर और विवेक।" भाष्य जप (संजल्प) से जो लाभ होता है, उससे हजार गुना लाभ इस त्रिशब्दात्मक मंत्र का उच्चारण करते ही चिलातीपुत्र ने तलवार ।
अन्तजप (अन्तर्जल्प) से होता है और अन्तर्जप से जो लाभ होता और मृत सुषमा का सिर दोनों चीजें एक ओर डाल दी और
है, उससे भी सहस्रगुना लाभ मानसजप से होता है। त्रिशब्दात्मक मंत्र के ध्यान में लीन हो गया। मंत्र की शब्दशक्ति के । स्पष्ट शब्दों में कहें तो मंत्रशास्त्र के अनुसार मंत्रोच्चारण की द्वारा उसका जीवन ही बदल गया।
पहली अवस्था है-संजल्प अर्थात्-भाष्यावस्था, जिसमें उच्चस्वर से 26F त्रिपदी मंत्र से समग्रश्रुत का अवगाहन
उच्चारण किया जाता है। दूसरी अवस्था है-अन्तर्जल्प यानी मंत्र के dese
शब्दों का उच्चारण बाहर में सुनाई नहीं देता, मंत्र का उच्चारण यह शब्द शक्ति का ही चमत्कार था कि भगवान् महावीर ने
व्यक्तरूप में नहीं होता, वह अन्तर्जल्पास्था है और तीसरी गौतम गणधर को 'उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' यह त्रिपदी मानसजय की अवस्था ज्ञानात्मक है, वहाँ अन्तर्जल्प भी नहीं होला, (त्रिशब्दात्मक) मंत्र दिया, जिसके आधार पर उन्होंने समग्र श्रुत का सिर्फ ज्ञान के रूप में भाषा रह जाती है। मंत्रशास्त्र में इन तीनों अवगाहन कर लिया। उनके मस्तिष्क में समस्त श्रुतज्ञान के द्वार वाकुप्रयोगों को क्रमशः वैखरी, मध्यमा और पश्यंती कहा गया है। खुल गए। वे श्रुत में पारगत हो गए।
मंत्र कब शक्तिमान बनता है, कब नहीं? मंत्रशास्त्र में शब्दशक्ति का प्रभूत माहात्म्य
वस्तुतः मंत्र जब शब्द से अशब्द तक पहुँचता है, तभी उसमें मंत्रशास्त्र में शब्दशक्ति पर बहुत गहरा चिन्तन किया गया है। शक्ति उत्पन्न होती है। मंत्र जब संजल्प और अन्तर्जल्प की भूमिका यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि मंत्रों में प्रभावशालिता, सक्षमता को पार करके उच्चारण से परे मनोमय भूमिका में चला जाता है, और सद्यःकर्तृत्वशक्ति शब्दों के अमुक प्रकार के संयोजन से उत्पन्न सिर्फ मानसिक उच्चारणमय हो जाता है, बल्कि उससे भी आगे हो जाती है। मंत्रशास्त्र ने अमुक शब्दों के उच्चारण पर बहुत प्राणमय स्तर तक पहुँच जाता है, तब उसमें असीम शक्ति पैदा हो प्रकाश डाला है। मंत्रोच्चारण से प्रकट होने वाली ऊर्जा से व्यक्ति में जाती है। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट रूप से समझ लें-मंत्र का
अद्भुत रूपान्तर हो जाता है। अधिकांश लोग मंत्र की शक्ति को शरीर है-शब्द और मंत्र की आत्मा है-अर्थ। मंत्रजप की यात्रा शब्द Bी जानते-मानते हैं, परन्तु मंत्र की शब्दात्मक शक्ति में उन्हें विश्वास से शुरू होती है, आगे चल कर शब्द छूट जाता है, केवल अर्थ शेष
कम है। इसलिए मंत्र की शब्दशक्ति पर दढ विश्वास होने पर भी रह जाता है। यदि हम सिर्फ शब्द को ही मंत्र मान कर चलते हैं. उसके उच्चारण की विधि जाननी आवश्यक है। सही ढंग से मंत्र
उसकी जो आत्मा = अर्थ है-उसकी भावना न करें, तो जो लाभ 200000 का उच्चारण करने पर अन्तर् में जमे हुए मैल धुल जाते हैं,
मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। इसलिए मंत्रज्ञों द्वारा मंत्र के मनमस्तिष्क निर्मल हो जाता है। मैल दूर होते ही व्यक्ति का
शरीर से यात्रा शुरू की जाती है और मंत्र की आत्मा तक पहुँचा आन्तरिक व्यक्तित्व बदलता है; नाड़ी संस्थान निर्मल होने लगता है।
जाता है। मंत्र तभी सार्थक एवं सफल होता है, जब वह अर्थात्मा से
जुड़ जाता है। अतः मंत्रसाधक को पहले मंत्र के शरीर-शब्द का १. 'एसो पंच णमोक्कारो' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण
स्पर्श करके तदनन्तर उसके माध्यम से उसकी आत्मा-अर्थ तक D onal 390009
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