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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 00000
तृतीय सम्मेलन मथुरा में हुआ। यह सम्मेलन वीर निर्वाण संगठन-प्रासाद की नींव तो तैयार हो ही गई, और उसकी 1200000 10002..य संवत्-८२७ से ८४० के मध्य में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में | रचना में गुरुदेव श्री का प्रबल पुरुषार्थ समाहित था। हुआ। उसी समय दक्षिण और पश्चिम में जो संघ विचरण कर रहे
इस दिशा में प्रयत्न करते रहने की आपश्री की भावना में कभी थे उनका सम्मेलन वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में ।
शिथिलता अथवा विक्षेप नहीं आया। चिन्तन चलता ही रहा कि BRDS हुआ। यह चतुर्थ सम्मेलन था।
ऐसा प्रयास किया जाय जिससे कि श्रमणों का एक संगठन बन __पंचम सम्मेलन वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी ई. सन् ४५४- जाय-क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे संगठन ही जीवन है, और ४६६ के मध्य में वल्लभी में हुआ था। इस सम्मेलन के अध्यक्ष विघटन है मृत्यु। देवर्धिगणी क्षमाश्रमण थे।
अतः स्पष्ट है कि कोई भी समाज संगठन के बिना प्रगति कर इन पाँचों सम्मेलनों में आगमों के संबंध में ही चिन्तन-मनन । ही नहीं सकता। जब प्रगति न हो तब परिणाम क्या संभव है? किया गया, क्योंकि स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति धीरे-धीरे ही सही, किन्तु निश्चित रूप से-क्षय। का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति प्रभृति कारणों से श्रुत
अतः आपश्री संगठन के लिए रात-दिन चिन्तन करते रहे, साहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो गया था। उसे पुनः व्यवस्थित
प्रयास करते रहे। आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप ही करने का प्रयास किया गया। उसके पश्चात् आगमों की वाचना को
सन् १९५२ में सादड़ी में सन्त सम्मेलन हुआ। क्योंकि सम्मेलन के लेकर कोई सम्मेलन नहीं हुए।
पूर्व आपश्री का सादड़ी में वर्षावास था। 20 आचार्य अमरसिंह जी महाराज के समय पंचेसर ग्राम में एक
सम्मेलन-स्थल कौन-सा हो, इस प्रश्न को लेकर स्थानकवासी सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का उद्देश्य श्रुत के सम्बन्ध में
जैन काँफ्रेन्स के अधिकृत अधिकारीगण निराश हो गए थे, क्योंकि चिन्तन नहीं, किन्तु पारम्परिक क्रियाओं को लेकर पूज्य श्री कानजी
जितने भी अन्य स्थानों से सम्मेलन के लिए प्रार्थनाएँ आई थीं, वे ऋषिजी महाराज के सम्प्रदाय के अनुयायी पूज्य श्री ताराचन्द जी
। सशर्त थीं। अतः विचारकों के समक्ष प्रश्न था कि सम्मेलन कहाँ महाराज, श्री जोगराजजी महाराज, श्री भीवाजा महाराज, श्री
कराया जाय? शर्ते पूरी न हों, तो सम्मेलन हो नहीं। पूर्वाग्रह रूप त्रिलोकचन्द जी महाराज, आर्याजी श्री राधा जी, पूज्य श्री हरिदास
शर्ते स्वीकार करना भी उपयुक्त नहीं हो सकता था। जी महाराज के अनुयायी मलूकचन्द जी महाराज, आर्या फूलाजी महाराज तथा पूज्य श्री परशुराम जी महाराज के अनुयायी श्री
इस विषम प्रश्न का समाधान आपश्री की निस्वार्थ, निस्संग खेतसी व खींवसी जी महाराज और आर्या श्री केसरजी महाराज
भावना एवं प्रयत्न से ही संभव हो पाया। आपश्री ने कहा-सादड़ी आदि सभी सन्त-सतीगण गम्भीर विचार-चर्चा के पश्चात् आचार्य
सम्मेलन के लिए उपयुक्त स्थल है। यह पावन भूमि है। यहाँ पर श्री अमरसिंह जी महाराज के साथ एक सूत्र में बँध गए।
आप सम्मेलन करें। इसके साथ ही आपश्री ने अपने ओजस्वी,
तेजस्वी, यथातथ्य प्रवचनों से स्थानीय संघ में सम्मेलन की भव्य उसके पश्चात् राजस्थान प्रान्तीय मुनियों का सम्मेलन पाली में ।
भूमिका तैयार की। परिणामतः इतना भव्य और सफल सम्मेलन सन् १९०२ में हुआ।
हुआ कि सभी देखकर विस्मित रह गए। संगठन की प्रथम लहर उत्पन्न हुई।
इस सम्मेलन को विशिष्ट ऐतिहासिक सम्मेलन माना जा सकता तत्पश्चात् सन् १९३३ में अजरामपुरी अजमेर में एक विराट है, क्योंकि इसी सम्मेलन में आपश्री द्वारा किए गए भव्य एवं सन्त-सम्मेलन का आयोजन हुआ। उस सम्मेलन में स्थानकवासी भगीरथ प्रबल पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप श्री वर्धमान स्थानकवासी समाज के मूर्धन्य सन्तगण पधारे। इसमें गुरुदेव श्री ने अपने
जैन श्रमण संघ का निर्माण हुआ। अजातशत्रु व्यक्तित्व की सारी शक्ति झोंककर नींव की ईंट के रूप इसे यदि एक ऐतिहासिक उपलब्धि न कहा जाय तो फिर क्या में अथक कार्य दिया। समाज-वीणा के बिखरे हुए तारों को मिलाने कहा जाय? में आपश्री ने कोई कोर-कसर न छोड़ी, ताकि उस वीणा के मिले
इस सम्मेलन में लगभग पचास हजार नर-नारी बाहर से हुए, एकीकृत तारों से एक ऐसी मानव-कल्याण की झंकार उठ सके
एकत्रित हुए थे। आपश्री के गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी जिससे कि समस्त मानवता उपकृत और आनन्दित हो उठे।
महाराज सभी सन्तों में उस समय सबसे बड़े थे। विभिन्न सम्प्रदायों -60930 यद्यपि वह सम्मेलन पूर्ण सफल नहीं हो सका, तथापि संगठन । की सरिताएँ श्रमण-संघ के महासागर में विलीन हो गई। संगठन के
के एक सुन्दर वातावरण का निर्माण अवश्य ही हुआ और ऐसे । लिए सभी पदवीधारी मुनिराजों ने अपनी पदवियों का परित्याग कर अनेक प्रस्ताव भी पारित हुए जिनसे स्थानकवासी समाज का । दिया और सर्वानुमति से परम श्रद्धेय, जैनागम वारिधि श्री एक भविष्य उज्ज्वल दिखाई देने लगा।
हजार आठ आत्माराम जी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया DEED8 6 APEOPNEPOTo
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