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तल से शिखर तक
गया। आगममर्मज्ञ श्री गणेशीलाल जी महाराज को उपाचार्य पद दिया गया और पंडित प्रवर आनन्दऋषि जी महाराज को प्रधानमंत्री पद प्रदान किया गया। सोलह विद्वान मुनिराजों का एक मंत्रिमंडल बनाया गया, जिसमें श्रद्धेय गुरुदेव को साहित्य - शिक्षण मंत्री पद दिया गया।
पद का महत्त्व क्या है ?
कर्तव्य है, जो कि प्रधान है।
आपश्री ने संगठन के लिए जिस विलक्षण प्रतिभा, सूझबूझ, विचार - गाम्भीर्य तथा संगठन शक्ति का परिचय उस अवसर पर दिया वह अविस्मरणीय है तथा श्रमण संघ इसके लिए आपका सदैव ऋणी ही रहेगा। नींव का पत्थर यद्यपि दिखाई नहीं देता, वह स्वर्ण कलश की तरह दूर से दिखाई नहीं देता किन्तु उसके बिना भव्य भवन का निर्माण नहीं होता। गुरुदेव भी नींव की ईंट के रूप में रहकर ही कार्य करने के आदि थे।
आपश्री का यह अथक प्रयास आगे ही बढ़ता रहा। संगठन बना रहे, श्रीसंघ का विकास उत्तरोत्तर होता रहे, यही आपके मन की भावना बनी रहती थी।
पश्चात् सोजत मन्त्रिमण्डल की बैठक, भीनासर सम्मेलन (१९५५), अजमेर शिखर सम्मेलन (१९६४) और सांडेराव राजस्थान प्रान्तीय सम्मेलन (१९७१) में भी आपश्री ने निष्ठापूर्वक महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा कीं । श्रमण संघ अखण्ड बना रहे इसके लिए जितना भी योगदान दिया जा सकता था वह आप देते ही रहे। आपश्री चाहते थे कि श्रमण संघ आचार-विचार, दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हो। श्रमणों की शोभा शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करने में है, तथा मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए, ऐसा आपका कथन और मान्यता थी ।
स्थानकवासी समाज की सीमा से आगे बढ़कर आप सम्पूर्ण जैन समाज की एकता देखना चाहते थे। बैंगलोर के सन् १९७७ के भारत जैन महामण्डल के लघु अधिवेशन में प्रवचन करते हुए आपने कहा था कि फूट एक प्रकार का विषबीज है। इसे समूल नष्ट करना चाहिए। इससे हमारे समाज की बहुत हानि हुई है। सम्प्रदाय रहें, किन्तु सम्प्रदायवाद न रहे। जिस प्रकार एक ही परिवार के लिए एक ही मकान में पृथक्-पृथक् कक्ष रहने के लिए होते हैं, जहाँ अलग-अलग व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से रहते हैं, लेकिन मकान में एक हॉल भी होता है, जहाँ परिवार के सभी सदस्य
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बैठकर वार्तालाप व चिन्तन कर सकते हैं, उसी प्रकार हमारे समाज की स्थिति होनी चाहिए। स्थानकवासी, मन्दिरमार्गी, तेरापन्थी व दिगम्बर परम्पराएँ भले ही रहें, किन्तु एक ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ बैठकर सभी हृदय की बात कह सकें और जैनधर्म के विकास हेतु चिन्तन कर सकें, प्रयास कर सकें।
आपश्री ने कहा था कि सम्प्रदाय उतना बुरा नहीं है, जितना कि सम्प्रदायवाद है। सम्प्रदायवाद के काले चश्मे ने हमें सत्य और तथ्य को पहचानने नहीं दिया, अतः सम्प्रदायवाद को त्याग कर हमें शुद्ध जैनत्व को अपनाना चाहिए।
प्राचीन तथा नवीन का समुचित सामंजस्य ही जीवन को सुन्दर और विकासोन्मुख बना सकता है अतः आपश्री एक ओर समीचीन नवीन विचारों को अपनाने के पक्षपाती थे तो दूसरी ओर प्राचीन श्रेष्ठ विचारों से भी उतना ही लगाव रखते थे। आपश्री का स्पष्ट कथन था कि नवीनता और प्राचीनता-ये दोनों प्रगति रथ के दो पहिये हैं। एक उठा हुआ है, दूसरा टिका हुआ आप दोनों पैर एक साथ आकाश में उठाकर उड़ने का हास्यास्पद प्रयास भी नहीं करना चाहते थे, तथा एक ही स्थान पर अड़े-खड़े रहकर प्रगति की ओर से विमुख भी नहीं होना चाहते थे। निरन्तर और निर्बाध प्रगतिआपका लक्ष्य था उसका मार्ग यही है कि कुछ गतिशील हो, कुछ स्थिर हो। गति और स्थिति दोनों पर एक-दूसरे का समान प्रभाव बना रहे। कुछ लोग किसी भी नई बात से कतराते हैं और पुरानी बात से ही चिपटे रहते हैं। उनके अन्तर में पुराने के प्रति विश्वास और नए के प्रति अविश्वास होता है। किन्तु आपश्री प्राचीनता की भूमि पर अवस्थित होकर नवीनता का स्वागत करने में संकोच नहीं करते थे।
संक्षेप में यदि कहा जाये तो आप एक सेतु थे- नवीनता तथा प्राचीनता के बीच, जो दोनों तटों को मिलाता है।
आपश्री में हठवादिता हरगिज नहीं थी । किन्तु गहन चिन्तनशीलता एवं अन्य व्यक्तियों तथा सम्प्रदायों के प्रति अपार तथा निश्छल सहनशीलता थी। जैसा कि इस जीवनी के कतिपय पिछले अध्यायों तथा आगे आने वाले अध्यायों से भी स्पष्ट होता है।
आपका भव्य जीवन विमूर्च्छित जीवन नहीं था।
पराजय शब्द आपने अपने कोष से निकाल ही दिया था।
आपके जीवन में जीवन्त चैतन्य था । आस्था का अमर आलोक था और था सामर्थ्य एवं सामंजस्य का सरस संगीत ।
धर्मनिष्ठ श्रोता के कान सागर के समान होते हैं जिसमें धर्म चर्चारूपी नदियां निरन्तर भरती रहने पर भी कान रूपी सागर भर नहीं पाते।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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