________________
996090090 MDEOdea 2032000000RROC004 186096600
D
.06.OESDESD
तल से शिखर तक
२२१ । महाराज श्री ताराचन्द्र जी ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से बालक के इतना दत्तचित्त कर दिया कि-देखते ही देखते वह एक पंडित की व्यक्तित्व के आर-पार तक देख लिया।
भाषा बोलने लगा। उन्होंने एक ही दृष्टि में जान लिया कि यह केवल एक बालक मानो सरस्वती देवी अपना वरदहस्त उस मेधावी बालक के ही नहीं, एक ऐसा अद्भुत ज्योतिपुंज है जो भविष्य में सम्पूर्ण । मस्तक पर रखने के लिए अधीर ही बैठी थी। जैन-जगत को ज्योतिर्मय कर देगा।
मात्र अवसर की प्रतीक्षा थी, और अवसर अब उपस्थित हो आवश्यकता केवल हीरे को तराशने की अथवा पन्ने को
गया था। निखारने की थी।
उस वर्ष गुरुदेव का वर्षावास पाली में था। उस समय बालक एक कुशल जौहरी की भाँति गुरुदेवश्री ने उस धूल भरे हीरे
वैरागी के रूप में था। संयोग की ही बात है कि उस समय महान् को अथवा मटमैली किन्तु मूल्यवान मणि को देखते ही पहचान
चमत्कारी सन्त वक्तावरमल जी महाराज भी पाली में ही उपस्थित लिया।
थे। उन्होंने बालक वैरागी अम्बालाल के हाथ में पद्म, कमल, ध्वजा, स्वीकृति मिल गई।
मत्स्य, डमरू आदि अनेक शुभचिन्ह देखे तो वे विस्मय विमुग्ध और आशीर्वाद प्राप्त हो गया जो भाग्यवानों को ही प्राप्त होता है। परम प्रसन्न हो गए। उन्होंने गुरुदेव से कहा
बालक अम्बालाल के पैर का घाव अभी भी टीसता रहता था। "लोग व्यर्थ ही मुझे चमत्कारी कहा करते हैं। अरे, चमत्कार इतनी उपेक्षा मिली थी उन्हें सेठजी से। उसकी शारीरिक पीड़ा को तो साक्षात् इस बालक के रूप में आपकी छाया में प्रगट होकर देखकर गुरुदेव श्री के संकेत से एक वैद्य जी ने उसका उपचार समस्त जैन-जगत को चमत्कृत करने की प्रतीक्षा में उपस्थित है। यह किया जो कि संयोगवशात् उदयपुर से परावली आए हुए थे। उनके
बालक, बालक ही नहीं जैन धर्म की अद्भुत प्रभावना करने वाला उपचार से घाव शीघ्र ही ठीक हो गया और बालक लम्बी पद यात्रा
अनुपमेय महापुरुष है। यह मेरा वचन है। मानें तो भविष्य कथन के योग्य हो गया।
है। मुझे जो स्पष्टतः दिखाई दे रहा है, वह यही है।" पिता सूरजमल जी ने मोहवश अम्बालाल को रोकने का बहुत
इस प्रकार वैरागी के रूप में अध्ययन करते हुए अम्बालाल को प्रयास किया। किन्तु जहाँ तक उसका प्रश्न है, वह तो अचल और ।
लगभग एक वर्ष से अधिक हो चुका था। अडिग था।
सिवाना और जालौर के अतिरिक्त भी अनेक अन्य संघ हार्दिक और जहाँ तक सूरजमल जी के मोह का प्रश्न था, वे
रूप से चाहते थे कि दीक्षा के महोत्सव का लाभ उन्हें प्राप्त हो। नान्देशमा के प्रबुद्ध श्रावकों के समझाने-बुझाने से अन्ततः समझ गए और उन्होंने बालक को दीक्षा ग्रहण करने की स्वीकृति सहर्ष किन्तु गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी चाहते थे कि दीक्षा से पूर्व प्रदान कर दी।
अम्बालाल का अध्ययन और भी अधिक गंभीर-गहन हो जाय तो संयम-साधना के शिखर की दिशा में यात्रा का आरम्भ हो
अधिक अच्छा हो। अतः वे और लम्बे समय तक उसे वैरागी के गया।
रूप में ही रखना चाहते थे।
___ लेकिन अन्ततः संघवालों की निर्मल-निश्छल भक्ति एवं राजहंस की ऊँची उड़ान
अत्यधिक आग्रह ने गुरुदेव का हृदय पिघला ही दिया। अनन्त काल
से भक्तों के निश्छल स्नेह, भक्ति और आग्रह के सम्मुख आराध्य संभावनाएँ हों और समुचित सहारा मिल जाय तो सफलता के
झुकते ही चले आए हैं, वशीभूत होते रहे हैं। शिखर तो सहज ही और स्वतः ही चरण चूमने लगते हैं।
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से यही तो कहा था, कुरुक्षेत्र के बालक अम्बालाल तो जन्मजात प्रतिभापुरुष था।
समरांगण मेंधूल-भरा हीरा था।
"भक्तिमान् यः स मे प्रियः।" मन माटी में सनी हुई मूल्यवान मणि था।
तथाउसे जौहरी मिल गया।
"भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।" श्री ताराचन्द्र जी महाराज के दिग्दर्शन में जब उसने 'क-खग' से अध्ययन आरम्भ किया तो यह एक विस्मय की ही बात है । सच्चा भक्त अपने भगवान् को भी विवश कर ही देता है। हमने कि अत्यन्त अल्पकाल में ही अक्षर ज्ञान के उपरान्त वह पुस्तकें । यहाँ एक ही उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु यदि इतिहास, पुराणों पढ़ने लगा और धार्मिक साहित्य के अध्ययन में उसने स्वयं को । को उठाकर टटोला जाय तो ऐसे अनेक प्रसंग पाठकों को
99280002
।
Usein Education International
För private a Personal use only
www.aine bary.org