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उपाध्याय पूज्य पुष्कर मुनिजी म. में यह गुण विद्यमान था । मैंने अनेक बार उनके दर्शन किये और उनकी सेवा का भी अवसर मिला। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा रही।
संसार में भाग्यशाली उसे समझा जाता है जो अन्तिम समय में आनन्द और समाधिपूर्वक पंडित मरण प्राप्त करे। पूज्य उपाध्याय श्री कितने भाग्यशाली थे कि उनकी विद्यमानता में आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी का शानदार चादर महोत्सव सम्पन्न हो गया। दीक्षा महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। सब कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कराकर | समूचा दायित्व आचार्यश्री को संभलाकर फिर समाधिभाव के साथ | पंडित मरण प्राप्त किया।
आगम में आनन्द श्रावक का वर्णन आता है। उसने अपने | ज्येष्ठ पुत्र को सब दायित्व सौंपकर निवृत्ति लेकर अंतिम संलेखना संथारा किया। उसी प्रकार उपाध्याय श्री के जीवन में भी यह सहज प्रसंग बन गया। यह उनकी महान् पुण्यवानी का सूचक है।
दूसरी बात संथारा / पंडितमरण प्राप्त करने पर अन्तिम यात्रा में लोगों की भीड़ तो हो जाती है, परन्तु इतने साधु-साध्वियों का एकत्र होना तो प्रबल पुण्यवानी का ही फल है।
इस प्रकार मैंने देखा उपाध्याय श्री का जीवन जितना यशस्वी और चढ़ती पुण्याई वाला रहा, उनका अन्तिम समय भी उतनी ही प्रबल पुण्यवानी का सूचक रहा ।
मैं ऐसे महान् उपाध्यायश्री को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ और आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. की वन्दना करके उनके आरोग्यमय दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। आचार्यश्री की दिन दूनी रात चौगुनी जहाँ जलाली बढ़ती रहे। मेरी यही हार्दिक भावना है।
गुरु की श्रद्धा मेरी श्रद्धा
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पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. मेरे श्रद्धाधार आराध्य मुनिनाथ थे। मैं उनके अदेखे हो जाने के बाद उनके बारे में क्या कहूँ और क्या लिखें? कुछ भी कहना और लिखना ठीक वैसा ही प्रयास है, जैसे चुल्लू भर पानी समाने वाली अंजुलि में हृदय की असीम अपार श्रद्धा को रखकर बताना कि ये थे मेरे गुरुदेव ।
- श्री गणेश मुनि शास्त्री श्री गणे
सच में गुरुगम कथनीय होता ही नहीं, वह तो अनंत आकाश का अगम अगोचर महानद होता है। गुरु कहने का नहीं, सहने का सत्य होता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
गुरु तो महानद होता है। उसे अगस्त्य बन पान तो किया जा सकता है परन्तु उसे कहा नहीं जा सकता। गुरु सहा जाता है, कहा नहीं। क्योंकि गुरु शिष्य को पारावार रहित समुद्र में धकेलता है। पर वह ममत्व की उनींदी आँखों से उसे कभी निहारता नहीं। इसलिए वह गुरु होता है।
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गुरु शिष्य को सीख का अमृत पिलाता है। गुरु के मधुर उपालम्भ केवल पीड़ा नहीं देते, वे शिष्य का परित्राण करते हैं। इसलिए पूर्ण शिष्यत्व को जीने वाले कबीर जैसे महान शिष्य ने गुरु की व्याख्या करने के प्रसंग में न कुछ कहने की तरह एक ही पद-वाक्य में गुरु को पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित किया था
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गुरु प्रजापत सारिखा, पड़-पड़ काढे खोट । भीतर से रक्षा करे, ऊपर लगावे चोट ॥
गुरु कहने को सशरीर शिष्य के इर्द-गिर्द दिखलाई देता है, पर सच में तो वह शिष्य के ममत्व से दूरातिदूर होता है। वह निर्ममत्व व निसंग का स्वयं साधक होता है। उसी अममत्व के असीम आसन पर शिष्य को अवस्थित देखना/पाना चाहता है।
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गुरु मरणधर्मा कभी हुआ ही नहीं वह अमर और अजन्मा होता है वह भव्यात्माओं का उद्धारक, पथ प्रदर्शक मार्गदर्शक होता है। वह शिष्य को कुम्हार की तरह घड़ता है उसकी जड़ता व मूढता मिटाता है। गुरु शिष्य के प्रति जितना कठोर होता है, उतनी ही उसकी गुरुता पूर्णत्व पाती है।
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जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। घड़े को घड़ने की उसकी क्या प्रक्रिया होती है। वह घड़े को थापी से मार-मार कर उसे रिसने से बचाता है। कुम्हार को विश्वास हो जाता है यह अब कहीं से भी रिसेगा नहीं, तब वह थापी को एक ओर पटक देता है और घड़े को सूखने देता है।
गुरु भी शिष्य को वर्जनाओं के कठोर वचनों से घड़ता है। दया, स्नेह, करुणा, परोपकार, संयम, निष्ठा, सदाचार आदि का प्राण-संचार कर देता है, तब वह शिष्य को कहता है-'अब तुम तपस्या की आंच तापो !' साथ ही इस सीख से भी अभिमंत्रित करता है- 'तपस्या में क्रोध करोगे तो भस्म हो जाओगे। सदाचार से विचलित होओगे तो दुनिया तुम्हें ठुकरा देगी।'
इतनी सीख देकर वह मनतः समाधिस्थ हो जाता है समाधिस्थ होते समय वह शिष्य को फिर से अबोली वाचा में कहता है- 'मैं संसारार्णव के उस किनारे पर पहुँच रहा हूँ, तुम गुरु संनिधि पाना चाहते हो तो मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा तुम उस पार आकर पुकार भर लेना, मैं अदेखा नहीं रहूंगा, यहीं मिल जाऊँगा। भूलकर भी इस पार खोजने की, पुकारने की कोशिश मत करना।'
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