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________________ HER do desa AGR A JARAM 30700300003866600 6. 00-00-0ldcuadabad श्रद्धा का लहराता समन्दर बाजार २३ 'इस पार जगत उस पार गुरु' बस इतना-सा मंत्र याद रखना। बहता था। सम्पूर्ण अग-जग उससे लाभान्वित होकर गौरवान्वित होता रहा। x मैं अपने आराध्य गुरुदेव के बारे में कुछ न कहूँ यह भी मेरी विवशता है। ऊपर जो कुछ कहा वह भी आराध्य को कहने का पुष्कर गुरु का 'मुनि' होना एक सत्य था। पर वे निस्पृह थे, एक उसांस है। यह गहन सत्य है। मुनि होना सिक्के का एक पक्ष है, मुनित्व का श्रद्धेय गुरुवर श्री पुष्कर मुनिजी म. संयम में जीते रहे अवतरण होना सिक्के का दूसरा पक्ष है। निस्पृह हो रहना दूसरे पक्ष ताजिंदगी। अध्यात्म के समरसी भावों में भीगे डूबे रहे हमेशा।। की उपलब्धि है। किसने जाना उनके अन्तर्मन को। शिष्य गुरु को पा ले तो वह एकदा मैं उनके अनंत-असीम गुरु-स्वरूप का चिंतन कर रहा शिष्य नहीं रहता-वह गुरु हो जाता है। था तो मैंने पाया-'उन्होंने वैभव को वैराग्य में, समृद्धि को सिद्धि में, मोह को करुणा में, विषमता को समता में, वेदना को आनंद में, जैनत्व को जिनत्व में डूबोकर साधुत्व की परम हंस अवस्था मैं तो मानता हूँ। मैंने उन्हें हृदयस्थ तो किया है पर मैंने पाने तक अपने को विस्तृत कर लिया था और मुनित्व जैसे महान पद 220 का प्रदर्शन नहीं किया, क्योंकि पाने के प्रदर्शन में अक्सर शिष्य को पाकर उन्होंने जन-जन के हित में अपने को तिल-तिल तिरोहित गुरु को खो देता है। गुरु का खो जाना ही शिष्यत्व का लुप्त हो कर दिया था। जाना है। क्यों? द्वितीयदा मैंने उन्हें जानना चाहा तो पाया कि वे आगम की क्योंकि गुरु केवल गुरु ही नहीं होता। वह गुरुत्व से ऊपर उठा आँख हैं, श्रुत व श्रद्धा हैं। वे श्रद्धा से भरे हैं; उन्होंने अपनी देह पुरुषोत्तम (विष्णु-वीतरागत्व की ओर धावमान पुरुष) महापुरुष भी को बेदम होते पाया तो एक स्फुरणा ली। मन को आदेशित किया, 902 होता है। वीतरागत्व की महासत्ता को जी रहे महापुरुष को शिष्य के मन बस बहुत हुआ। अनचाही मृत्यु को संलेखना व्रत की स्वीकृति DS बस का है कि वह उन्हें अपने हाथों में थामे रहे। गुरु मोह में यदि देकर बार-बार शरीर को नष्ट करने वाली मृत्यु से मैत्री कर ले। शिष्य ऐसा करता है तो वह गुरु-रूप कुम्हार के हाथ से घड़ा हुआ शिष्य नहीं रह जाता। . . . . . . . . और मैंने तभी देखा आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि । जी म. के आचार्य पद समारोह के बाद उन्होंने परम श्रद्धेय श्री आचार्यप्रवर, परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म.,000 गुरु दीवार की खूटी पर टंगी हुई तस्वीर नहीं है कि उसे जब । मारवाड़ के महाप्रण प्रर्वतक श्री रूपचन्द जी म., महामंत्री सौभाग्य AGO चाहा खूटी से उतारा और माथे से लगा लिया और फिर से खूटी मुनि जी म., प्रवर्तक श्री रमेश मुनि जी म., प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 0 पर लटका दिया। क्योंकि गुरु कभी अटकने की बात नहीं करता, जी 'कमल', तपस्वी श्री मोहन मुनि जी म., पण्डितरत्न श्री चन्दन वह सदा भव-भ्रमण के भटकाव को मिटाने का महामंत्र प्रदान । मुनि जी म., ओजस्वीवक्ता श्री रवीन्द्र मुनि जी म. आदि संतों एवं करता है। इसीलिए वह संयम में जीता है। संयम में सबको सीता है। विदुषी महासतियों तथा अनेकानेक श्रावक संघों की उपस्थिति में वह अमृत पाता है और अमृत ही बाँटता/लुटाता है। संथारा-संलेखना व्रत का प्रतिज्ञा पाठ ग्रहण किया। आँखें बंद थीं, और अपने मुनि में अंदर के मुनित्व से शाश्वत साक्षात्कार में समाहित हो गए। इसी अंदर के मुनित्व को पाने के लिए ही हम मैं शब्दों के छिलके न उतारता हुआ थोड़े शब्दों में उनकी आप चले हैं, चलते रहे हैं और चलते ही रहेंगे यही जैनत्व का अथाहता को थाहने का प्रयास करूँ तो कह सकता हूँ-'गुरु तो । अमर मंत्र है, इसी का नाम संथारा-निस्तारा है। सच्चे अर्थों में स्वपरकल्याणकारी कल्पवृक्ष होता है। संत-भाव होता है, पूजा नहीं। उसका जीवन अध्यात्म का साम्राज्य होता है और । गुरु की श्रद्धा मेरी श्रद्धा, मेरी श्रद्धा सबकी श्रद्धा। यही श्रद्धा वह जन्म-जन्म की अपूर्ण साधना की ज्योति भी होता है। वह भावों का सार कि तुम भी पहुँचो उस पार। की अथाहता तो है, पर ज्वार नहीं। वे संतत्त्व के समुद्र तो थे, पर विषमताओं के खारेपन से रहित सीधे-साधे अमृत सागर थे। मन जब भटक जाता है तो चाहे जितनी दीर्घकालिक साधना हो, उसे बचा नहीं सकती और जब मन स्थिर हो जाता है तो दीर्घकाल तक गुरु पुष्कर ने संत-जीवन पाया था, उसी को उन्होंने भोगे हुए विषय-भोग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। जीवंत किये रखा। संतभाव को जीने का अर्थ है अनहदना की बिन -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि बांसुरी को सुनते रहना। उनके प्रत्येक कर्म से अनहद का संगीत RS / anternational
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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