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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
संथारा, संलेषना : एक चिन्तन
जीवन और मरण
भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन और मरण के संबंध में गंभीर अनुचिन्तन किया है। जीवन और मरण के संबंध में हजारों ग्रन्थ लिखे गये हैं।' जीवन सभी को प्रिय है और मरण सभी को अप्रिय है।
" जब कोई भी व्यक्ति जन्म ग्रहण करता है तब चारों ओर प्रसन्नता का सुहावना वातावरण फैल जाता है। हृदय का अपार आनंद विविध वाद्यों के द्वारा मुखरित होने लगता है। जब भी उसका वार्षिक जन्म दिन आता है तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार समारोह मनाकर हृदय का उल्लास अभिव्यक्त करता है। जीवन को आनंद के सुमधुर क्षणों में व्यतीत करने के लिए गुरुजनों से यह आशीर्वचन प्राप्त करना चाहता है। वैदिक ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता है कि मैं सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीऊँ मेरे तन में किसी भी प्रकार की व्याधि उत्पन्न न हो। मेरे मन में संकल्पविकल्प न हों। मैं सौ वर्षों तक अच्छी तरह से देखता रहूँ, सुनता रहूँ, सूँघता रहूँ, मेरे पैरों में मेरी भुजाओं में अपार बल रहे जिससे मैं शान्ति के साथ अपना जीवन यापन कर सकूँ।"
मानव में ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में जिजीविषा है। जिजीविषा की भव्य भावना से उत्प्रेरित होकर ही प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक युग तक मानव ने अनुसंधान किए हैं। उसने ग्राम, नगर, भव्य भवनों का निर्माण किया। विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ, औषधियां, रसायनें, इंजेक्शन, शल्य क्रियाएं आदि निर्माण की। मनोरंजन के लिए प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा के केन्द्र संस्थापित किये। उद्यान, कला केन्द्र, साहित्य, संगीत, नाटक, चलचित्र, टेलीविजन, टेलीफोन, रेडियो, ट्रेन-प्लेन, पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले उपग्रह आदि का निर्माण किया। अब यह चन्द्र लोक आदि ग्रहों में रहने के रंगीन स्वप्न देख रहा है।
पर यह एक परखा हुआ सत्य तथ्य है कि जीवन के साथ मृत्यु का चोली-दामन का संबंध है। जीवन के अगल-बगल चारों ओर मृत्यु का साम्राज्य है । मृत्यु का अखण्ड साम्राज्य होने पर भी मानव उसे भुलाने का प्रयास करता रहा है। वह सोचता है कि मैं कभी नहीं मरूँगा किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पुष्प खिलता है, महकता है, अपनी मधुर सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध करता है वह पुष्प एक दिन मुरझा जाता है। जो फल वृक्ष की टहनी पर लगता है, अपने सुन्दर रंग रूप से जन मानस को आकर्षित करता है, वह फल भी टहनी पर रहता नहीं, पकने पर नीचे गिर पड़ता है। सहस्ररश्मि सूर्य जब उदित होता है तो चारों ओर दिव्य आलोक जगमगाने लगता है, पर सन्ध्या के समय उस सूर्य को भी अस्त होना पड़ता है।
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी
जीवन के पश्चात् मृत्यु निश्चित है मृत्यु जब आती है तब अपनी गंभीर गर्जना से जंगल को कंपाने वाला वनराज भी कांप जाता है। मदोन्मत्त गजराज भी बलि के बकरे की तरह करुण स्वर में चीत्कार करने लगता है। अनन्त सागर में कमनीय क्रीड़ा करने वाली विराटकाय व्हेल मछली भी छटपटाने लगती है। यहाँ तक कि मौत के वारन्ट से पशु-पक्षी और मानव ही नहीं स्वर्ग में रहने वाले देव-देवियां व इन्द्र और इन्द्राणियाँ भी पके पान की तरह कांपने लगते हैं। जैसे ओलों की तेज वृष्टि से अंगूरों की लहलहाती खेती कुछ क्षणों में नष्ट हो जाती है वैसे ही मृत्यु जीवन के आनंद को मिट्टी में मिला देती है।
गीर्वाण गिरा के यशस्वी कवि ने कहा- जो जन्म लेता है वह अवश्य ही मरता है- "जातस्य हि मरणं ध्रुवम्" । तन बल, जन बल, धन बल और सत्ता बल के आधार से कोई चाहे कि मैं मृत्यु से बच जाऊँ यह कभी भी संभव नहीं है। आयु कर्म समाप्त होने पर एक क्षण भी जीवित रहना असंभव है। काल (आयु) समाप्त होने पर काल (मृत्यु) अवश्य आयेगा। बीच कुंए में जब रस्सी टूट गई हो, उस समय कौन घड़े को थाम सकता है ?३
मृत्यु का भय सबसे बड़ा
जैन साहित्य में भय के सात प्रकार बताये हैं। उन सभी में मृत्यु का भय सबसे बड़ा है। मृत्यु के समान अन्य कोई भय नहीं है । ४
एक बादशाह बहुत मोटा ताजा था। उसने अपना मोटापा कम करने के लिए उस युग के महान् हकीम लुकमान से पूछा- मैं किस प्रकार दुबला हो सकता हूँ ?
लुकमान ने बादशाह से कहा- आप भोजन पर नियंत्रण करें, व्यायाम करें और दो-चार मील घूमा करें।
बादशाह ने कहा- जो भी तुमने उपाय बताये हैं, मैं उनमें से एक भी करने में समर्थ नहीं है। न मैं भोजन छोड़ सकता है. न व्यायाम कर सकता हूँ और न घूम ही सकता हूँ।
लुकमान कुछ क्षणों तक चिन्तन करते रहे, फिर उन्होंने कहाबादशाह प्रवर। आपके शारीरिक लक्षण बता रहे हैं कि आप एक माह की अवधि के अन्दर परलोक चले जायेंगे।
यह सुनते ही बादशाह ने कहा- क्या तुम्हारा कथन सत्य है ? लुकमान ने स्वीकृति सूचक सिर हिला दिया।
एक माह के पश्चात् जब लुकमान बादशाह के पास पहुँचा तो उसका सारा शरीर कृश हो चुका हो 'चुका था। बादशाह ने लुकमान से पूछा- अब मैं कितने घण्टों का मेहमान हैं।