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________________ वे युग पुरुष थे। उन्होंने समाज की गली सड़ी परम्पराओं को झकझोरा और उन्हें नई दृष्टि दी और नई सर्जना का स्वरूप बताया। अज्ञान और अन्धविश्वास में भटकते हुए मानवों के अन्तरमानस में ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित किया। मिथ्याधारणाओं को तोड़ा और श्रद्धा को नया आयाम प्रदान किया। विश्वास को ज्ञान पर केन्द्रित किया। नया चिन्तन, नया संकल्प और प्रगति के विकास के अभिनव आधार प्रदान किए। शिक्षा, सेवा और संगठन की त्रिवेणी बहाकर जन-जन को विकास के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दी। शताब्दियों क पश्चात् ऐसे युग पुरुष पैदा होते हैं जिन्होंने आठ दशक तक हमारे बीच में रहकर हमें न केवल अपने जीवन की नई दिशा दी अहिंसक समाज, देश और राष्ट्र को भी नया सन्देश दिया। स्वयं ने जमकर साधना की और दूसरों को साधना करने के लिए उत्प्रेरित किया। स्वयं समाधि में रहे और दूसरों को भी समाधि में रहने के लिए सदा उत्प्रेरित करते रहे। दार्शनिक प्लेटो ने ठीक ही लिखा है, "दार्शनिक की दृष्टि विशाल होती है वह सम्पूर्ण जगत का द्रष्टा ही नहीं होता वह तो जीवन और जगत की उन उलझी समस्याओं को सुलझाता भी है, जिनके कारण जीवन और जगत एक पहेली बने हुए हैं।" दार्शनिक की यह विशेषता मैंने गुरुदेवश्री के जीवन में पाई है। गुरुदेवश्री भारतीय संत परम्परा के उज्जवल नक्षत्र थे। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की उज्ज्वल समुज्जवल किरणें आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर रही हैं। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व हमें आत्म कल्याण और लोक कल्याण की ओर अग्रसर बनने हेतु प्रेरणा दे रहा है। वे एक ओर कबीर जैसे फक्कड़ थे तो दूसरी ओर सूर जैसे भक्त हृदय के धनी भी थे। वे वयःस्थविर, ज्ञान स्थविर और तपःस्थविर थे। रत्नत्रय की आराधना में वे अडिग, अडोल थे, तो भावना जगत में करुण और कोमल भी थे, असहाय, दुःखी और पीड़ित जनमानस के लिए उनका हृदय माधुर्य से ओतप्रोत था तो अन्याय, अत्याचार आदि के लिए वे बहुत कठोर भी थे। कोमलता और कठोरता का उनके जीवन में मधुर संगम था, वे सच्चे साधक, संवेदनशील कवि और ओजस्वी प्रवक्ता थे। वे इन्द्रियजेता थे और आत्मविजेता थे। उनकी ओजस्वी और तेजस्वी वाणी में सिंह की तरह गंभीर गर्जना थी इसीलिए वे राजस्थानी केसरी कहलाते थे। मां बाली बाई की कुक्षी से उन्होंने स्नेह पाया था और पिता सूरजमल से उन्होंने ऊष्मा प्राप्त की थी, अन्तिम समय तक वे आत्म विजेता बने रहे। उनकी साधना का लक्ष्य आत्म-स्वरूप की प्राप्ति था। साधना की सीपी में पककर उनका साहित्यिक व्यक्तित्व उभरा था। वे आशु कवि थे। उन्होंने जन-मंगल की भावना को और आगम के गंभीर भावों को बड़ी कुशलतापूर्वक अपने साहित्य में बांधा था। वे अपनी साधना में सदा अप्रमत्त रहे जीवन की सांध्य बेला तक भी उनका विवेक दीप्त रहा। अनुभूति की सच्चाई और साधना की तेजस्विता के कारण उनकी वाचा भी सिद्ध हो चुकी थी। जो भी उनके मुँह से निकलता उसमें जादुई प्रभाव था, अमोघ शक्ति थी, और विवेक से संयुक्त वाणी को श्रवण कर किसका हृदय आन्दोलित नहीं हुआ? वे संघ की अमूल्य निधि थे। प्रस्तुत गंथ में परम श्रद्धेय सदगुरुदेव के व्यक्तित्व और कतित्व को शब्दों की गागर में बांधकर जीवन के सागर को रखने का प्रयास किया है और इस प्रयास में परम श्रद्धेय महामहिम आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का मार्गदर्शन मेरे लिए सदा ही पथ-प्रदर्शक रहा, उन्होंने भक्तिभाव से विभोर होकर ग्रंथ का सुन्दर संपादन किया, ग्रंथ में जो कुछ भी अच्छाई है, वह उन्हीं के कठिन श्रम का सुफल है, तथा संपादक मंडल का भी सहयोग मुझे प्राप्त हुआ और उन श्रद्धालुओं को भी भुला नहीं सकता जिन्होंने गुरुदेवश्री के नाम पर अपनी सहज भक्ति प्रदर्शित की और ग्रंथ के प्रकाशन हेतु अर्थ सहयोग प्रदान किया, विशेषतः मैं स्नेह सौजन्य मूर्ति श्रीचंद जी सुराणा को नहीं भुला सकता जिन्होंने ग्रंथ को सजाने और संवारने में अथक प्रयास किया है। मैं उन सभी का आभारी हूँ जिन-जिन का मुझे सहयोग प्राप्त हुआ साथ ही सद्गुरूणी महासती श्री पुष्पवती जी म. का भी उपकार विस्मृत नहीं हो सकता जिनकी पावन प्रेरणा मेरे लिए सदा ही पथ-प्रदर्शक रही है। - दिनेश मुनि Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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