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में उनसे बातें करना, उन्हें प्राप्त करने के लिए मन में संकल्प करना, प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना एवं प्रत्यक्ष मैथुन सेवन करना। मैथुन के ये आठ अंग हैं। ब्रह्मचारी को इनसे बचना चाहिए।
उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए स्पष्ट निर्देश है कि वे महिलाओं को रागपूर्वक न देखें, न उनको पाने के लिए मन में इच्छा करें, न उनसे प्रार्थना करें, उनका चिन्तन एवं गुणगान मोह दृष्टि से न करें।
२.
उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य की नी गुप्तियों का भी विवरण है। यथा:- १. स्त्री नपुंसक से संसक्त शयनासन का सेवन न करें, कामरागबर्द्धक स्त्री कथा न करें, ३. स्त्रियों वाले स्थानों का सेवन न करें, ४. ललनाओं की मनोहर इन्द्रियों का, अंगोपांगों का अवलोकन व ध्यान न करें, ५. अत्यन्त स्निग्ध सरस आहार न करें, ६. मात्रा से अधिक आहार पानी का सेवन न करें, ७ पूर्व काल में स्त्रियों के साथ की गई काम-क्रीड़ाओं का स्मरण न करें, ८. विकारवर्द्धक शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श में आसक्त न हों और ९. भौतिक सुख-सुविधाओं में आसक्त न हों। इन गुप्तियों के अतिरिक्त भी शास्त्रों में अनेक स्थानों पर ब्रह्मचर्य पालन की प्रेरणा दी गई है।
ब्रह्मचर्य जैसे महत्वपूर्ण विषय पर विस्तारपूर्वक लिखना कोई सरल कार्य नहीं है। फिर प्रवचनों को निबंधाकार रूप देकर पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत करना तो और भी कठिन कार्य है। इस कठिन कार्य को साकार स्वरूप प्रदान किया है, श्रमणसंघीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने।
आपका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था और मात्र चौदह वर्ष की अल्पवय में जैन भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली थी। लगभग ७० वर्ष का संयम साधना काल कोई कम नहीं होता है। इतने लम्बे संयम-साधना काल में साधक तपकर कुन्दन बन जाता है। अपूर्व तपोबल प्राप्त कर लेता है। सिद्धियों की उपलब्धि भी हो जाती है। यह तथ्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के लिए चरितार्थ होता है। हमारे इस कथन की पुष्टि उनकी प्रभावशाली मांगलिक के अनेकों प्रसंगों से सहज ही हो जाती है।
उपाध्यायश्री जी अनेक भाषाओं में निष्णात थे। वे एक कुशल कथाकार, सरस कवि, उच्चकोटि के निबंधकार और सफल प्रवचनकार थे अद्यावधि अनेक विषयों से संबंधित विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है तथा सभी पुस्तकें लोकप्रिय भी बहुत हुई हैं। उनके द्वारा लिखित काफी सामग्री अभी भी अप्रकाशित है, जिसके प्रकाशन की योजना बनाई जानी आवश्यक है।
उनका विहार क्षेत्र अति विस्तृत था और उससे भी विशाल उनका सम्पर्क क्षेत्र था। विहारकाल में अथवा अवस्थिति के समय सभी श्रेणी के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे और उनके सरल
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
स्वभाव तथा उदार हृदय को देखकर उनके समूचे व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित होते थे।
वे एक कुशल प्रवचनकार थे। उनकी प्रवचनकला के संबंध में कहा जाता है- “ उनकी अद्भुत प्रभावशाली वक्तृत्वकला हजारों श्रोताओं का हृदय क्षणमात्र में आन्दोलित / परिवर्तित कर सकती थी।" ऐसा प्रभाव कुछ कम ही देखने को मिलता है।
उनके प्रवचनों के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। "ब्रह्मचर्य विज्ञान" उनमें से एक है। प्रसन्नता इस बात की है कि इस प्रवचन संग्रह का संग्रह और संपादन उनके सुयोग्य शिष्य रत्न श्रमण संघीय आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. "शास्त्री" ने बड़ी लगन, निष्ठा और परिश्रम के साथ किया है। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का कहना है- "गुरुदेव ब्रह्मचर्य विषय पर जब प्रवचन करते थे तो घंटों दिनों और महीनों बोलते जाते थे, इस प्रसंग पर इतनी अनुभवपूर्ण और जीवनस्पर्शी सामग्री उनके प्रवचनों में उपलब्ध होती है कि उसे वर्षों तक संग्रह करते रहने पर भी बासीपन नहीं आया, आज भी उनमें ताजगी है, जीवन्त प्रेरणा है।"
इस वक्तव्य से हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि ब्रह्मचर्य विषय पर उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का कितना अधिकार था। सहज ही कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य जैसे गंभीर विषय पर अथाह ज्ञान रखना कोई साधारण बात नहीं है।
प्रस्तुत “ब्रह्मचर्य विज्ञान प्रवचन पुस्तक की प्रस्तावना सुप्रसिद्ध विद्वान श्री यशपाल जैन ने लिखी है, उन्होंने लिखा है कि उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. की प्रस्तुत पुस्तक "ब्रह्मचर्य विज्ञान" अत्यन्त उपयोगी तथा प्रेरणादायी है। वह भोगवादियों की शंकाओं और तर्कों का उत्तर ही नहीं देती, ब्रह्मचर्य का जीवन में क्या स्थान है, उसकी उपादेयता क्या है, मानव जीवन को वह किस प्रकार ऊर्ध्वगामी बनाता है, मानव शरीर की दृष्टि से भी इसके क्या लाभ है आदि आदि इन सबका प्रतिपादन भी बड़ी सरल-सुबोध भाषा में बहुत ही सुन्दर ढंग से करती है।
प्रस्तुत प्रवचन संग्रह "ब्रह्मचर्य विज्ञान" को बहुत ही सुव्यवस्थित स्वरूप में पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसकी विषय सूची को देखते ही विदित हो जाता है कि इसे सोपानानुसार प्रस्तुत कर पाठकों की जिज्ञासा जाग्रत करने का प्रयास किया गया है। विषय सूची देखकर ही इसे पढ़ने की भावना उत्पन्न हो जाती है। अन्यथा सांसारिक पक्ष के लिए शुष्क लगने वाले विषयों के प्रति क्यों कर रुचि उत्पन्न हो । निःसंदेह यह कला प्रवचनकार और सम्पादक दोनों की है।
इस प्रवचन संग्रह को तीन खण्डो में विभक्त किया गया है।
यथा
प्रथम खण्ड- इस खण्ड में निम्नांकित सात प्रवचन संग्रहीत हैं१. ब्रह्मचर्य की सर्वतोमुखी उपयोगिता, २. ब्रह्मचर्य की सार्वभौम
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