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वाग् देवता का दिव्य रूप
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पुष्करिणी निस्यंद
(उपाध्याय श्री के सूक्ति साहित्य पर एक विहंगम पर्यवेक्षण)
-डॉ. नागरमल सहल
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है इसलिए धनपति DOE12
प्रसाद किसी भी रूप में हो सदा ग्राह्य होता है, सरिता-तट पर गीता कहती है 'न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठव्यकर्मकृत्' तीर्थ का विशेषतः । उससे मन मुदित होता है तथा क्षणभर के लिए 'नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः'। आत्मस्थ होने का अवसर सुलभ होता है। सूक्तियाँ भी एक तरह का
अनुभव से आदमी सीखता नहीं है, इसीलिए इतिहास की प्रसाद ही है। जैसे विभिन्न प्रान्तों के मंदिरों में प्रसाद के विविध रूप
पुनरावृत्ति होती है। शरीर जड़ है। आत्मा अमर है। चार्वाकवादियों होते हैं, लेकिन उन सबमें भी एक तरह का साम्य होता है। सूक्तियाँ ।
के अतिरिक्त सबका यही उद्घोष है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि सब देशों और सब भाषा साहित्यों में मिलती हैं। उनमें वैषम्य की
अधिसंख्य लोग नास्तिक और भौतिकवादी हैं। अधिकतर अपेक्षा साम्य अधिक होता है। सूक्तियाँ सब नयी नहीं होतीं। अगर
अनात्मवादी और देह-पूजक हैं। होतीं तो उनका अमित भण्डार हो जाता। देश-विदेश का मानव तो बहुत कुछ एक ही है। उसका चिंतन कई वार एक सा लगता है।
उपाध्यायजी का कथन है 'वर्तमानयुग में मनुष्य वासना सेवन सूक्तियाँ परिचयात्मक, ज्ञानात्मक, विवरणात्मक, सूचनात्मक तथा में पशुओं को भी मात कर गया है। आज भारत में नैतिकता और
6.9 आदर्शोन्मुख होती हैं। इस कारण सूक्तियों का सतत् उद्धरण देने मानवता का दिवाला पिट चुका है। अर्थ-युग है, इसलिए धनपति JORSRO वाले महारथी भी व्यवहार में सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। 'महाजन' हो गये मानो धन ही महत्ता का परिचायक हो गया। pages
RS सूक्ति का विलोम शब्द 'कूक्ति' हो सकता है जिसका ही यत्र, शंकराचार्य ने कहा था 'अर्थमनर्थ भावय नित्यं नास्ति ततः तत्र, सर्वत्र व्यवहार होता है। मनसा, वाचा, कर्मणा शुद्धि की बात सुखलेशः सत्यम्। पुत्रादपि धनभाजां भीतिः विहिता सनातन सा कही गई है। प्रधान मन है। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। रीतिः' मूल्यहीनता ही उच्चतम मूल्य हो गया है। भौतिक वस्तुएँ मन शुद्ध होगा तो वाणी और कर्म अशुद्ध हो ही नहीं सकते। आज । अचिरस्थायी होती हैं। जिनमें स्थायित्व नहीं, उनमें मूल्यवत्ता अशुद्ध मन की स्थिति के कारण वाणी तो दूषित हो ही गई है। कर्म । कैसी? गौरव है त्याग में, भोग में नहीं। 'गुण तो अपनी आत्मा के भी निष्काम न होकर प्रदर्शनात्मक हो गये।
वश में यानी प्रयास से प्राप्त किये जा सकते हैं लैकिन धन तो सूक्तियाँ अधिकांश अनुभवजन्य होती है, इसलिए कथ्य में
भाग्याधीन है। विरोध स्वाभाविक है। भाग्यवाद और कर्मवाद पर बहुत कुछ लिखा लीजिए, फिर आ गया भाग्य। 'पापकर्म हंस-हंसकर बांधे जाते 509२० गया है। कर्म करते रहने पर भी अगर सफलता नहीं मिले तो हैं और उनका फल रो-रोकर भोगा जाता है। लेकिन तथ्य को कोई हठात् भाग्य में विश्वास करना पड़ता है। 'यत्ने कृते न सिध्यति तर्हि । समझे तब न। हँसते समय जैसे रोना है ही नहीं।
Poonam कोऽत्र दोषः' का भाग्यवादी और कर्मवादी अलग-अलग अर्थ करते
अंग्रेज कवि शैली ने लिखा 'Our sweetest laughter हैं। भाग्यवादी कहते हैं कि पूरा प्रयत्न करने पर भी सफलता वरण
with some pain is fraught' माताएँ बच्चों को कहती हैं नहीं करती है तो किसका दोष? भाग्य का दोष ही है। कर्मवादी
इतना हँसो मत अन्यथा फिर कभी रोना पड़ेगा। 'धर्म को सामने कहते हैं कि कर्म करने में कोई न कोई कमी रह गई थी, उसका
रखकर यदि अर्थ, काम, मोक्ष को अपनाया जाय तो जीवन सफल परिष्कार करो।
हो। धर्मार्थकाममोक्ष चतुर्वर्ग कहलाता है। धर्म का अर्थ मानवधर्म है। श्री पुष्कर मुनि की सूक्ति है ‘भाग्य लंगड़ा है, भाग्य कर्म की ये चारों पुरुषार्थ हैं। धर्म से हटकर चले तो मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न ही बैसाखी पर चलता है। पर साथ ही दैव-गति बड़ी विचित्र होती है। नहीं। बिना धर्म के अर्थ, काम का सेवन किया तो परिणाम भाग्य योग से सज्जन पुरुषों पर भी आपत्ति आती है। जगत का सामाजिक वैषम्य, निर्धनता की विभीषिका तथा नया रोग एड्स।
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16930 अंधेरा हरने वाले सूर्य-चन्द्र को भी ग्रहण लगता है, इन्हें भी धन धर्म से प्राप्त होता है, पर धनी उस धन को धर्म के लिए छोड राहु-केतु ग्रसते हैं। भाग फले तो सब फले, भीख बंज व्यापार देना नहीं चाहता, वह उसके लिए बेटा चाहता है, अपना न हो तो
संस्कृत में 'भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् गोद लेने की सोचता है। धनी यह क्यों नहीं समझते कि भीड़ उनके भवितव्यता वलवती राजन्' पर साथ ही 'उद्योगिनः पुरुषसिंहमुपैति
धन के कारण इकट्ठी होती है, उनके कारण नहीं। चाटुकारिता लक्ष्मीः '
पनपी इसीलिए कि चाटूक्तियाँ आपको सुहाती हैं। निष्कर्ष यही है कि 'अन्तर में वैराग्य और बाह्य में कर्तव्य यह सब इसलिए कि चाटुकार आपको अयोग्य समझते हैं। पालन इष्ट है।
पक्षपात, भाई-भतीजावाद इतना बढ़ा है क्योंकि सबको धन चाहिए।
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