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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
१. अभिधान राजेन्द्र कोश
२. अन्तकृद्दशांग
३. आचारांग सूत्र
४. आवश्यक चूर्णि
५. आवश्यक सूत्र
६. उपासकाचार
संदर्भित ग्रन्थों की अकारादि क्रम से तालिका
११. दशवैकालिक सूत्र
१२. दर्शनसार
१३. निशीथ भाष्य
१४. भगवती आराधना
१५. भगवती सूत्र
७. उत्तराध्ययन
८. जैन आचार
९. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा १०. तत्त्वार्थ सूत्र
दो तरह के कर्म होते हैं-शुभ व अशुभ भोगना दोनों को पड़ता है। जैसा कर्म उपार्जन करेंगे वैसा ही फल भोगेंगे। कर्म पौद्गलिक है जो कर्म हम भोगते हैं वे चतुःस्पर्शी हैं। ये अदृश्य हैं-ये देखे नहीं जा सकते। क्योंकि ये सूक्ष्म है। कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है, स्थूल शरीर से नहीं है जब आत्मा स्थूल शरीर को छोड़कर निकलती है तो उसके साथ दो शरीर और रहते हैं। सूक्ष्म व अति सूक्ष्म यानि तैजस् तेजोमय पुद्गलों का और कार्मण यानि कर्मपुद्गलों का। तैजस् शरीर का तो फोटो भी लिया जा सकता है- कार्मण शरीर का नहीं। जब तक ये कर्मपुद्गल आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे, आत्मा मुक्त नहीं होगी।
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जैन मंत्र योग
तब प्रश्न आता है कि इनका आत्मा के साथ संबंध होता कैसे है ? वासना, ज्ञान, संस्कार व स्मृति से तो इनका कोई सम्बन्ध है। नहीं। इनका सम्बन्ध है केवल राग और द्वेष से इन दो स्थानों से ही आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध होता है और फिर कभी न कभी इनको भोगना पड़ता है। जिस तरह के बन्ध हम करेंगे उसी तरह का फल भोगेंगे। जब उनका विपाक हो जाता है तब उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वे हट जाते हैं विसर्जित हो जाते हैं। जब उनका उदय होता है तब उनके आंतरिक कारणों को खोजने का, उनको हटाने का प्रश्न आता है और उनके
१६. मूलाचार
१७. सागार धर्मामृत
१८. स्थानांग
१९. श्रावक धर्म दर्शन
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-श्री करणीदान सेठिया
भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत हो जाते हैं। दो तरह के कर्म होते हैं। शुभ व अशुभ यानि पुण्य के व पाप के। यह सत्य है कि पुण्य का फल पुण्य और पाप का फल पाप होगा। पर कभी-कभी उल्टा भी हो जाता है जैसे- है तो पुण्य-परन्तु फल भोगेंगे पाप का है पाप और फल मिल जायेगा पुण्य का यह संभव है कोई आश्चर्य नहीं है ऐसा होता है। जाति परिवर्तन के द्वारा यह संभव है। पुण्य के कर्म परमाणु संग्रह से पुण्य का बंध हुआ और ऐसा कोई पुरुषार्थ हुआ कि उस संग्रह का जात्यंतर हो गया। थे तो पुण्य के पर प्रमाणु पर बन गए पाप के परमाणु। इसी तरह पाप का बंध हुआ इसमें सारे परमाणु संग्रह पाप से जुड़े हुए थे किन्तु ऐसा पुरुषार्थ हुआ ऐसी साधना की गई कि उस संग्रह का जात्यान्तर हो गया। इसी तरह जो सुख देने वाले परमाणु थे वे दुख देने वाले बन गए और जो दुःख देने वाले परमाणु थे थे सुख देने वाले बन गए। कौन जानता है कि कौन से कर्मपुद्गल निकायित हैं और कौन से दलिक। इसीलिए महावीर कहते हैं कि पुरुषार्थ करो कर्म करते रहो।
कहने का तात्पर्य है कि सब कुछ हमारे हाथ में है-जरूरत है पुरुषार्थ की निमित्त माध्यम चाहे जिसे बना लें। यह हमारे चिंतन पर निर्भर है। दो साल बाद आने वाली बीमारी को रोग को