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। इतिहास की अमर बेल
४२३ आचार्य लालचन्दजी महाराज को तृप्ति देने लगा। आचार्य-जीवन में भोगों से उसी तरह उपरत था जैसे कीचड़ में कमल। इक्कीस वर्ष वह लाखों श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गया। यह नाम की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने अपनी पत्नी को विषय-भोगों की स्थानकवासी परम्परा के गौरव का प्रतीक है।
निस्सारता और ब्रह्मचर्य की महत्ता समझाकर अ-ब्रह्मचर्य का त्याग शिशु का वर्ण गौर था, तेजस्वी आँखें थीं, मुस्कुराता हुआ
करा दिया। वे अपने निश्चय पर चट्टान की तरह दृढ़ थे। माता की सौम्य चेहरा था और शरीर सर्वांग सुन्दर था। जिसे देखकर दर्शक
ममता, पिता का स्नेह और पत्नी का उफनता हुआ मादक प्यार आनन्दविभोर हो जाता था। अमरसिंह के जन्म लेते ही अपार
उन्हें अपने ध्येय से नहीं डिगा सका। एक दिन अवसर पाकर अपने संपत्ति की वृद्धि होने से और सुख-समृद्धि बढ़ने से पारिवारिक जन
मन की बात आचार्यप्रवर लालचन्दजी महाराज से कही! गुरुदेव,
क्या आप मुझे अपने श्रीचरणों में शिष्य रूप में स्वीकार कर सकते अत्यन्त प्रसन्न थे। माता का वात्सल्य, पिता का स्नेह और ।
3000 । हैं ? गुरु ने शिष्य की योग्यता देखकर कहा-वत्स! मैं तुम्हें स्वीकार पारिवारिक जनों का प्रेम उसे पर्याप्त रूप से मिला था। रूप और
290 बुद्धि की तीक्ष्णता के कारण सभी उसकी प्रशंसा करते थे। अमर
कर सकता हूँ, किन्तु माता-पिता और पत्नी की आज्ञा प्राप्त करनी संस्कारी बालक था। उसमें विचारशीलता, मधुरवाणी, व्यवहार
होगी। उनसे अनुमति प्राप्त करना तुम्हारा काम है। गुरु की स्वीकृति
प्राप्त करके अमरसिंह बहुत प्रसन्न हुए। कुशलता आदि सद्गुण अत्यधिक विकसित हुए थे। उसमें एक विशिष्ट गुण था, वह था चिन्तन करने का। वह अपने स्नेही
त्याग मार्ग पर साथियों के साथ खेल-कूद भी करता था, नाचता-गाता भी था, हँसता-हँसाता भी था, रूठता-मचलता भी था, बाल-स्वभाव सुलभ
राही को राह मिल ही जाती है, यह सम्भव है देर-सबेर हो यह सब कुछ होने पर भी उसकी प्रकृति की एक अनूठी विशेषता
सकती है, किन्तु राह न मिले यह कभी सम्भव नहीं। अमरसिंह ने थी कि सदा चिन्तन मनन करते रहना। योग्य वय होने पर उसे
माता-पिता और पत्नी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि मैं अब संसार में कलाचार्य के सन्निकट अध्ययन के लिये प्रेषित किया, किन्तु अद्भुत
नहीं रहूँगा। मुझे साधु बनना है। माता ने आँसू बहाकर उसके प्रतिभा के कारण अल्प समय में ही उसने अरबी, फारसी, उर्दू,
वैराग्य को भुलाना चाहा। पिता ने भी कहा-पुत्र, तुम्हीं मेरी संस्कृत आदि भाषाओं का उच्चतम अध्ययन कर लिया। आपकी
वृद्धावस्था के आधार हो, मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? पली ने प्रकृष्ट प्रतिभा को देखकर कलाचार्य भी मुग्ध हो गया। संस्कारों का
भी अपने मोह-पाश में बाँधने का प्रयास किया। किन्तु दृढ़ मनोबली वैभव दिन प्रतिदिन समृद्ध हो रहा था।
अमरसिंह ने सभी को समझाकर आज्ञा प्राप्त कर ली और भरपूर
युवावस्था में संवत् १७४१ में चैत्र कृष्णा दशमी को भागवती दीक्षा एक बार ज्योतिधर जैनाचार्य लालचन्दजी महाराज देहली
ग्रहण की। अब वे अमरसिंह से अमरसिंह मुनि हो गये। पधारे। उनके उपदेशों की पावन गंगा प्रवाहित होने लगी। अमरसिंह भी अपने माता-पिता के साथ आचार्यप्रवर के प्रवचन में पहुँचा।
अमरसिंह मुनि ने दीक्षा ग्रहण करते ही संयम और तप की प्रवचन को सुनकर उसके मन में वैराग्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने
साधना प्रारम्भ की। वे सदा जागरूक रहा करते थे? प्रतिपल- PROCE लगी। उसे लगा कि संसार असार है। माता-पिता ने उसकी भाव
प्रतिक्षण संयम साधना का ध्यान रखते थे। विवेक से चलते, विवेक भंगिमा को देखकर यह समझ लिया कि यह बालक कहीं साधना के
से उठते, विवेक से बैठते, विवेक से बोलते, प्रत्येक कार्य वे विवेक मार्ग में प्रवेश न कर जाय। अतः उन्होंने देहली की एक सुप्रसिद्ध
के प्रकाश में करते। संयम के साथ तप और जप की साधना करते, श्रेष्ठीपुत्री के साथ तेरह वर्ष की लघुवय में बालक अमर का
जैन आगम साहित्य का उन्होंने गहन अध्ययन किया। अपनी पैनी पाणिग्रहण कर दिया। उस युग में बालविवाह की प्रथा थी। बुद्धि से, प्रखर प्रतिभा से और तर्कपूर्ण मेधाशक्ति से अल्प काल में बाल्यकाल में ही बालक और बालिकाओं को विवाह के बन्धन में ही आगम के साथ दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य का विशेष बाँध दिया जाता था; किन्तु उनका गार्हस्थिक सम्बन्ध तब तक नहीं । अध्ययन किया। होता था जब तक वे पूर्ण युवा नहीं हो जाते थे। विवाह होने के
धर्म प्रचार पश्चात् भी लड़की मायके में ही रहती थी। किशोर अमर के विवाह के बन्धन में बँधने पर भी उसके मन में किसी भी प्रकार का तप, संयम के साथ विशेष अध्ययन में परिपक्व होकर आकर्षण नहीं था। उसका अन्तर्मानस उस बन्धन से मुक्त होने के । आचार्यश्री लालचन्दजी महाराज की आज्ञा से आपने धर्मप्रचार का लिए छटपटा रहा था। किन्तु माता-पिता की अनुमति के बिना वे कार्य आरम्भ किया। अपनी विमल-ज्ञान राशि को पंजाब और उत्तर संयम साधना के महामार्ग पर नहीं बढ़ सकते थे। उन्होंने माता-पिता । प्रदेश के जन जीवन में महामेघ के समान हजार-हजार धाराओं में से निवेदन किया, किन्तु माता-पिता धर्म-प्रेमी होने पर भी मोह के बरसाकर बिखेर दिया। अनेक स्थलों पर बलि प्रथा के रूप में कारण पुत्र को श्रामण जीवन में देखना नहीं चाहते थे। उन्होंने । पशुहत्या प्रचलित थी, उसे बन्द करवाया। अन्धविश्वास और से कहा- पुत्र, कुछ समय तक तुम रुको। अतः माता-पिता के आग्रह / अज्ञानता के आधार पर फैले हुए वैश्यानृत्य, मृत्युभोज और को सम्मान देकर वे गृहस्थाश्रम में रहे। किन्तु उनका मन विषय । जातिवाद का आपने दृढ़ता से उन्मूलन किया। श्रमणसंघ व
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