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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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ईश्वर (जगत्कर्ता) की सत्ता में विश्वास नहीं करता और फिर भी अध्यात्म के, जीवन के रहस्य के परम शिखर पर पहुँच गया है, वह कितना महान् तथा आज के ही नहीं, अनन्त काल से पूजनीय तथा अनुकरणीय न हो, यह कितने दुःख तथा आश्चर्य की बात है।
हम वेद को अपौरुषेय मानते हैं। उसकी बात करने की हम में शक्ति नहीं है। पर उनमें भी ऋषभ अरिष्टनेमि आदि की सत्ता है। उपनिषदों से लेकर चलिये तो आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की असली तत्व धर्म का क्या है। जिसे लोग 'धर्म' नाम से पुकारते हैं वह तो केवल एक शाब्दिक विडम्बना है। धर्म का अर्थ न अंग्रेजी शब्द "रेलिजन" है और न मुसलिम शब्द “मजहब" है। हमारा समूचा धर्मशास्त्र केवल “कर्त्तव्य शास्त्र' है। हमारे किसी धर्म शास्त्र ने धर्म की व्याख्या नहीं की है। यह करो, वह करो, यह न करो, वह न करो, यह तो बार-बार मिलता है पर यह वहाँ कहाँ लिखा है कि यही करना धर्म है। यदि कहीं इतना स्पष्ट होता है तो महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि धर्म क्या है तो वे यह उत्तर न देते
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः स पन्था। धर्म का तत्व बड़ा गूढ़ है। जिस मार्ग से महापुरुष चलें, उसी मार्ग से चलना धर्म है। महापुरुष किसे कहते हैं, किस महापुरुष के बतलाये मार्ग से चलें, इसका उत्तर कौन देगा। "फिलासफी' नाम की चीज हमारे हिन्दू-बौद्ध-जैन किसी मत में नहीं है। पश्चिम के "फिलासफर" तर्क से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। हमारे देश में "दर्शन" है, दर्शन शास्त्र है यानी हमारे ऋषि, मुनि, भगवान तीर्थकर या भगवान बुद्ध ने जो देखा, अपनी तपस्या से जो अनुभव किया, दर्शन किया-वह तर्क से नहीं, अनुभव से बना दर्शनशास्त्र है। चूँकि दर्शन के आधार पर हमारे अध्यात्म की भित्ति खड़ी हुई है इसीलिए आज तक हमारे अध्यात्म शास्त्र की भित्ति पर एक से एक बढ़कर महान् शास्त्र की रचना होती जा रही है। कोई किसी मार्ग को पकड़ लेता है, कोई किसी को। आखिर हिन्दू धर्म में न्याय शास्त्र है, तर्क शास्त्र है, कपिल हैं, कणाद हैं, वैदान्तिक हैं, सांख्य हैं, और “जब तक जीये सुख से जीये, भस्म होने वाला शरीर फिर कहाँ मिलेगा" कहने वाले चार्वाक ऋषि भी हैं। इतने मत मतान्तरों में उलझा है हिन्दू धर्म कि पिछले एक हजार वर्ष में पुराणों में संवर्धन, संशोधन तथा मिलावट करके उनकी गरिमा तक नष्ट कर दी गयी है। आज के युग में हमारे महान पुराणों की दुर्गति करने वाले भी कम नहीं हैं।
सूझ-बूझ तथा तपस्या के अनुसार व्याख्या कर हमें सम्बोधित करते भरा रहें। भगवान महावीर के कोई मतावलम्बी न थे न सम्प्रदाय वाले। दिगम्बर, श्वेताम्बर, न मूर्तिपूजा विरोधी स्थानकवासी अथवा उग्र सुधारक तेरापंथी। पार्श्वनाथ के चार महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को मिलाकर जो पाँच महाव्रत दिये हैं, ऐसा कौन हिन्दू है जो अपने को हिन्दू कहता हो और उनको न माने-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचय। इन महान् तथ्या म स एक का पकड़ ले
ताल अन्य चार आप से आप सध जायेंगे। वैदिक कथन भी तो है कि %ae केवल ब्रह्मचर्य के व्रत से देवताओं ने मृत्यु को जीत लिया।
ब्रह्मचर्येण देवा तपसा मृत्युमुपाघ्नत। इन पाँच तत्वों या मूलमंत्र को मानने तथा जीवन में उतारने के लिए ही जैन धर्म ने विशद आचार संहिता का निर्माण किया है I
और आज तक इस संहिता की व्याख्या तथा जीवन में उतारने की शिक्षा बराबर मिल रही है। हिन्दू कहता है कि जब तक कर्म का बंधन नहीं टूटेगा, आत्मा की मुक्ति न होगी, जन्म तथा मरण का 64 ताँता लगा रहेगा। यह बंधन समाप्त हुआ और आत्मा मुक्त होकर परब्रह्म में विलीन हो जायगा। हिन्दू धर्म का एक पक्ष सृष्टि के हरेक पदार्थ में चैतन्य का वास मानते हैं। जैन मत के 22PDP अनुसार विश्व दो पदार्थों में विभाजित है-जीव सनातन है, अजीव PROD जड़ है-पर दोनों ही अज अमर और अक्षर हैं। जीवधारी पुद्गल जल (प्रकृति), धर्म यानी गति, अधर्म यानी अगति या लय, देश (आकाश) और काल यानी समय से बँधे हुए हैं। इसी पाँच तत्व के बीच जैन धर्म का महान् स्याद्वाद है। जैसे हम 'नेति नेति' परब्रह्म के लिए कहते हैं कि वह यह भी है, नहीं भी है या न वह 6 0sal है, न यह वह है-स्याद्वाद इस स्थिति को मेरे विचार से और भी स्पष्ट कर देता है-जिस दृष्टि से देखिये वैसा ही दिखेगा-यह मेरा अपना इसका अर्थ है, चाहे वह घट के रूप में हो या ब्रह्म के रूप में। हमारे लिये मोक्ष का अर्थ है परब्रह्म में उसी का अंश DSD आत्मा का लय हो जाना। ब्रह्म न जड़ है, न चेतन। वह तो नपुंसकं इदम् ब्रह्म नपुंसक लिंग है। बौद्ध का जीव निर्वाण को प्राप्त करता है। दीपक बुझ जाता है। पर जैन धर्म में जीव परम आनन्द की स्थिति में पहुँच जाता है, कैवल्य प्राप्त कर। सोचने-समझने से यह है स्थिति बड़ी आकर्षक लगती है। वस्तु स्थिति क्या है यह कोई अनुभवी हो तो बतलाये। हम तो केवल जो सुनते हैं, हमारे उपदेशक जो कहते हैं, वही जानते हैं। अन्यथा बाबा कबीरदास न कह जाते
उतते कोइ न आइया जासे पूछू धाय।
इतते सव कोई जात हैं मार तदाम तदाम॥ ऐसा कौन हिन्दू है जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य से परे कोई कर्म मानता हो। ब्रह्मचर्य का बड़ा व्यापक अर्थ है। अपनी स्त्री से सन्तुष्ट रहना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। छात्र जीवन में
मतभेद क्या है
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मुक्त, स्वयंसिद्ध विभूति आकर उपदेश देकर चल देते हैं। यह उनके अनुयायियों का काम है कि उनके कथन को अपनी
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