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समन्वय परम्परा के स्थापक उपाध्यायश्री
देवराज मेहता (जयपुर)
हमारी गौरवशाली भारतभूमि संतों, मुनियों, ऋषियों और महात्माओं की तपोभूमि रही है। यहाँ की पावन पुण्य धरा पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कर्मयोगी श्रीकृष्ण, अर्हत अरिष्टनेमि, भगवान महावीर, तथागत बुद्ध जैसे नररत्न यहाँ पर जन्मे और उनकी यह अध्यात्म क्रियास्थली रही है। यहाँ के कण-कण में आज भी संत साधना का साक्षात् कराने की क्षमता है। यदि किसी के अन्तरमानस में निष्ठा है तो इतिहास के पृष्ठ इस बात के साक्षी हैं। कि बड़े से बड़े सम्राट और सद्गृहस्थ संतों के चरणों की धूल लेने के लिए सदा सलकते रहे और अपने आपको सौभाग्यशाली मानते रहे | संत निसंग भाव से कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक घूम-घूम कर धर्म प्रचार करते रहे। वे समन्वय की आदर्श परम्परा के स्थापक रहे, स्नेह सद्भावना और आत्मीपम्य दृष्टि प्रदान करना उनका संलक्ष्य रहा, इसलिए सम्राट से भी बढ़कर परिव्राट की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। यह एक परखा हुआ सत्य है। अन्य भिक्षु या महात्मागण अपनी मर्यादाओं को विस्मृत होकर परिग्रह के सिद्धांत को अपनाते रहे, उनका जीवन एक आदर्श जीवन न रहकर एक ऐश्वर्य संपन्न व्यक्ति का जीवन हो गया पर जैन श्रमण इसका अपवाद रहा। जैन श्रमण सदा ही आत्म-साधना के महामार्ग पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाता रहा और आधुनिक युग में भी उसका यह पवित्र आदर्श हमें देखने को मिलता है।
परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. स्थानकवासी जैन परम्परा के एक ओजस्वी / तेजस्वी संत थे। हमारे परिवार पर उनकी असीम कृपा रही है। परम्परा की दृष्टि से वे हमारे गुरु भी रहे हैं। वे जीवन भर आनन्द और उल्लास के साथ जीये और मृत्यु को भी उन्होंने महोत्सव बना दिया। वे जब तक जीये तब तक अपनी साधना की मस्ती में मस्त रहे। और जब पार्थिव शरीर को छोड़कर अगली दुनिया में उन्होंने प्रस्थान किया तो आनंद से झूमते हुए वे विदा हुए, उनके मानस सागर में अपनी साधना और कृतित्व के प्रति अपार आस्था की लहरें तरंगित हो रही थीं, उनकी मौत मोहपाश से आबद्ध नहीं थी। जो मौत मोहपाश से आबद्ध होती है, वह मौत वास्तविक मृत्यु नहीं होती, वास्तविक मृत्यु तो यह है, जो हँसते हुए मृत्यु को वरण करें। उन्होंने हँसते हुए मृत्यु को वरण किया था। यही उनकी साधना का आराधना का शिखर था। वस्तुतः उनका जीवन महान् था और वे महानता की कसौटी पर सदा-सर्वदा खरे उतरे, ऐसे महागुरु के चरणों में कोटि-कोटि वंदन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सभी मनोरथ सिद्ध हुए
-सुनील कुमार पूनमचन्द, सूरह (दिल्ली)
जब किसी व्यक्तित्व में महानता के गुणों का अवतरण होता है। तो वह सहज ही जन-जन के मन का श्रद्धा का भाजन बन जाता है। परम श्रद्धेय स्व. उपाध्याय प. गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन भी सभी की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। आपका जीवन निर्मल जल की भाँति पवित्र था। आपके जीवन में सादगी और सरलता की सुर-सरिता प्रवाहित थी आप अपने और पराये की भावना से परे थे। आपकी देव, गुरु, धर्म के प्रति अनंत आस्था थी, अगाढ़ स्नेह था।
मेरा परम सौभाग्य रहा कि आप जैसे सद्गुरु की मुझे उपलब्धि हुई। गुरु एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो मानव को नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा बना देता है। गुरु ऐसे श्रेष्ठ कलाकार हैं जो एक अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा का रूप प्रदान कर देते हैं। जो वन्दनीय और पूजनीय हो जाते हैं। वस्तुतः आपश्री का जीवन, शान्त, सौम्य, ज्ञान की गंभीरता, विचारों की गरिमा, स्वभाव की सरलता, विनम्रता और कोमलता से आपूरित था। आपश्री के प्रवचनों में समन्वय के स्वर मुखरित थे। आपकी सरलता हृदय को स्पर्श करती हुई अन्तर्मानस को छूती थी। आपकी वाणी में ओज, तेज और मधुरता का ऐसा सुन्दर समन्वय था जो श्रोता प्रवचन को श्रवण कर लेता, वह आत्म-विभोर हो उठता।
मैंने सुना कि आपश्री के सद्गुरुवर्य महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म एक महान जपयोगी संत रत्न थे और उनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता ज्येष्ठमल जी म. भी सिद्ध जपयोगी थे, वे रात-रात भर खड़े रहकर जप की साधना करते थे। जप साधना से उनकी वाणी में एक चमत्कार पैदा हो गया था। गुरु परम्परा से प्राप्त जाप की विधि आपको प्राप्त हुई थी और नियमित समय पर आपश्री भी निरन्तर जाप करते थे और जाप साधना में आपकी अत्यधिक अभिरुचि थी। आपकी जपनिष्ठा ने एक ऐसी अद्भुत शक्ति पैदा कर दी थी। कि हजारों व्यक्ति आपके मंगलपाठ को सुनकर अपने चिन्ताओं से मुक्त हो जाते थे। जब मध्याह्न में आप ध्यान के पश्चात् मंगलपाठ देते, उसे समय बरसाती नदी की तरह जनता उमड़ पड़ती थी । बाजार बन्द हो जाते थे, सड़कों पर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। धन्य है ऐसे महापुरुष का दिव्य जीवन, धन्य है उनकी अद्भुत साधना, जिसे हमें प्रत्यक्ष देखने का अनुभव हुआ। जिनके मंगलपाठ को श्रवण कर मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हुए।
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समय-समय पर मैं और हमारा परिवार तथा पूज्य पिता श्री पूनमचन्दजी पूज्य गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ पहुँचते रहे। जब हमें यह ज्ञात हुआ कि गुरुदेवश्री ने संथारा ग्रहण किया है, मैं उस समय बम्बई में था। मैने पूज्य पिताश्री को दिल्ली फोन किया। पूज्य पिताश्री ने फोन पर मुझे सूचित किया कि पूज्य गुरुदेवश्री के
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