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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अपने ज्ञायक-साक्षी स्वभाव में होने-रूप- होती' हैं तब निष्कर्म या मोहनीयकर्म तथा (४) दान-लाभ-वीर्य-भोग-उपभोग की शक्तियों को कर्म क्षय की प्रक्रिया शुरू होती है, जो मोक्ष-मार्ग कहलाता है! { घातने वाला प्रतिरोधी अन्तराय कर्म! यह कर्म जब उदय रूप रहते कौन-सा मार्ग चुना जाये, इसके पूर्ण अवसर और स्वतंत्रता । हैं तब आत्मा के ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति-गुण प्रगट नहीं हो पाते हैं जीवात्माओं के समक्ष प्रत्येक समय रहती है। वे अपने स्वविवेक, और वह निजानंद-रस-पान से वंचित रहता है। ज्ञान और हित-अहित का निर्णय करने में स्वतंत्र-सक्षम है। इसे ही
मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-दर्शन मोहनीय और चारित्र पुरुषार्थ की संज्ञा दी है। जैसा निर्णय, वैसा फल।
मोहनीय। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय में जीव स्व-स्वरूप के प्रति स्व-स्वभाव की रुचि और रमणता का फल है-अतीन्द्रिय- मूच्छित रहता है, जो अनन्त संसार-दुख का कारण है। दर्शन मोह अनुपम आनन्द, परिपूर्ण ज्ञान-दर्शन और मोह-क्षोभ रहित सहज के उदय में जीव पर-वस्तुओं से राग-द्वेष रूप अनन्त सम्बन्ध शुद्धात्मा की प्राप्ति! विभाव-भाव में रमण का फल है-बाधित स्थापित करता है, इसे अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया-लोभ कहते क्षणिक सुखाभास, दुख के संयोग, इन्द्रिय जन्य अल्प ज्ञान और हैं। स्वभाव की दृष्टि से यह अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क चारित्रजिज्ञासा, अपूरणीय अभिलाषा और संसार परिभ्रमण! स्व-स्वभाव मोह कहलाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में दर्शन-मोह के उदय के की ओर प्रवृत्त आत्मा भव्य और स्व-समय-स्थित कहलाती है। कारण सम्यक्त्व का घात होता है जो चारित्र-मोह-कर्म निरपेक्ष है। विकार-विभाव तथा पर वस्तुओं से सुख की अभिलाषा करने वाली इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी- कषायों के उदय से अनन्तानुबन्धी
आत्माएँ ‘पज्जय मुढा पर-समया' के अनुसार अज्ञानी/अभव्य होती। चारित्र का ही घात होता है, सम्यक्त्व का नहीं। यह विशेष है कि है। अनादि काल से क्रोधादि-मोह रूप विभाव-भावों के कारण दर्शन-मोह के उदय में अनन्तानुबन्धी के उदय से जैसे क्रोधादिक जीवात्माएँ परावलम्बी, पराधीन और दुखी है! सुखी और । होते हैं, वैसे क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते अतः दुख और स्वावलम्बी होने की बाधा है-प्रतिपक्षी कर्म की शक्ति की, जो । आकुलता का मूल कारण दर्शन-मोह ही कहा गया है जो सर्व स्वरूप जागरण स्वरूप श्रद्धान-ज्ञान और स्वरूप रमण में अवरोध कर्मों में प्रधान है। घातिया कर्मों का क्षय करने वाला स्नातक उत्पन्न करती है। जिस प्रकार मेघ-पटल के कारण सूर्य का प्रकाश
कहलाता है। आवृत हो जाता है, और जितना-जितना मेघ-पटल घटता जाता है, दूसरे वर्ग में चार अघातिया कर्म आतें हैं जिनके उदय में उतना-उतना सूर्य प्रकाश फेंकता जाता है; उसी प्रकार मोह-राग-द्वेष जीवों को सुख-दुख की वाह्य सामग्री आदि मिलती है, जैसे-(१) के विकारी भावों के कारण जड़-कर्म-परमाणु आत्मा की सहज साता-असाता रूप इष्ट-अनिष्ट सामग्री देने वाला वेदनीयकर्म, (२) स्वभाव शक्तियों को आवृत कर लेते हैं। इससे आत्मा की दिव्यता, । किसी शरीर विशेष में आत्मा को रोके रखने वाला आयु कर्म। (३) । भव्यता और स्वाधीनता बाधित हो जाती है। जितने-जितने अंशों में शरीर, गति, जाति, इन्द्रियाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि ढाँचा आदि द्रव्य कर्मों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है उतने-उतने अंशों देने वाला नाम कर्म तथा (४) नीच-उच्च कुल प्रदान करने वाला में ज्ञान-दर्शन स्वभाव प्रकट होता है, शेष ढंका रहता है।
गोत्र कर्म। यह कर्म यद्यपि जीव के ज्ञानादि स्वभाव को नहीं घातते जैन दर्शन में बन्ध योग्य कार्मण-वर्गणाएँ कर्म कहलाती हैं, ।
किन्तु उनके उदय से सुख-दुख की सामग्री, मान-अपमान, जीव के शुभ-अशुभ भावों के निमित्त से जो कर्म आत्मा से बंधते
जन्म-मृत्यु, गति-जाति, उच्च-नीच कुल आदि प्राप्त होते हैं। हैं, वे द्रव्य कर्म कहलाते हैं। द्रव्य-कर्म अपनी स्थिति या काल के भावों की विविधता, विचित्रता और अनेकरूपता के अनुसार अनुसार उदय में आते हैं। कर्मों के उदय में जीव के जो मोह-राग
कर्मों के अनेक भेद-प्रभेद होते हैं फिर भी उन्हें व्यापक रूप से द्वेष रूप विकारी-भाव उत्पन्न होते हैं वे भाव-कर्म कहलाते हैं, तथा १६८ कर्म प्रकृतियों में विभाजित किया है। घातिया कर्मों में द्रव्य कर्मों के उदय से शरीर इन्द्रियादि प्राप्त होती हैं वे नो-कर्म ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की नौ, मोहनीय में दर्शन मोह कहलाते हैं। कर्म का बन्ध विभावी-भावों से होता है। जिनका उदय की तीन और चारित्र मोह की २५, और अन्तराय की ५ प्रकृतियाँ द्रव्य-कर्मों के कारण होता है। द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव
{ होती हैं। अघातियाँ कर्मों में वेदनीय की दो, आयु की चार, कर्म से द्रव्य कर्म-बन्ध की प्रक्रिया निरन्तर चलती है।
नामकर्म की ११३ और गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ होती है। इन
१६८ प्रकृतियों में ६८ पुण्य प्रकृतियाँ और १०० पाप प्रकृतियाँ व घातिया-अघातिया कर्मों का वर्गीकरण-आत्मा के संदर्भ में कर्मों
होती हैं। कर्म-बन्ध योग्य १२० होती है जिनमें ५८ अप्रतिपक्षी के प्रतिपक्षी प्रभावों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-घातिया
और ६२ प्रतिपक्षी होती हैं। अबन्ध योग्य २८ होती हैं। कर्म और अघातिया कर्म! पहले वर्ग में आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव को घातने/बाधित करने वाले कर्म आते हैं जैसे-(१) ज्ञान
एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार जीव विपाकी ७८, पुद्गल गुण को घातने वाला प्रतिरोधी ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शन गुण को
विपाकी ८२, भव विपाकी ४, और क्षेत्र विपाकी ४ होती हैं। घातने वाला प्रतिरोधी दर्शनावरण कर्म, (३) आत्म श्रद्धान रूप अभव्य जीवों को ४७ ध्रुबबंधी कर्म-प्रकतियों का अनादिसम्यक्त्व एवं स्वरूप-रमण रूप चारित्र को घातने वाला प्रतिरोधी । अनन्त बंध होता है। भव्य जीवों को ७३ अध्रुवबंधी कर्म प्रकृतियों
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