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श्रावकधर्माष्टकम्
मुनीन् सदा नन्तुमुपाश्रयं ब्रजेम प्रणम्य पृच्छेत्सुखदां सुशान्ति । निमन्त्रयेत्सादरमेव तान्स्वयं, ग्रहीतुमाहार मथेऽप्सितं शुचिम् ॥१॥
नमेत् त्रिकृत्वो गृहमागतं मुनिं तथा सतीमादरतोऽप्युपस्थिताम् । समर्पयेत्सम्मुखमेव निर्मित, शुचिं तदाहारमिमं विधानतः॥२॥
न जीव हिंसा कुरुते कदाप्ययं कदापि कष्टं न ददाति जीवितम् । निजेच्छया रन्तुमयं न रोचते, बलात्कृतेश्चिन्तनमेति दूरतः ॥ ३ ॥
परोपकाराय सदा हि रोचते, करोति यत्नं परहेतवे सदा । सुखं भवेदन्यजनस्य जीवने, जनश्च जैनो भवतीह मन्यते ॥ ४ ॥
स्वजीवनं दातुमपीह यो जनो, हितात्परस्याऽस्ति समुद्यतः सदा ॥ स एव जैनः कथितोऽस्ति वास्तवः, परन्तु वक्तुं बहवो भवन्त्यमी ॥ ५ ॥
शृणोम्यहं श्रावक धर्म धारिणं, जनं स्त्रियं जैनमुनिं सतीम् च चतुर्विधं सङ्घमिमं विवक्षया, तनोमि पद्यानि यदृच्छया स्वयम् ॥६॥ अणुव्रती धर्म परायणो जन, स्तथैव नारी जिनधर्म धारिणी । करोति नित्यं बलिकर्म सत्क्रियां, नरश्च नारी भवतो हि धार्मिकौ ॥ ७ ॥ विलोक्य सारं सकलं कथागतं यथागमं श्रावक धर्ममुक्तवान् । • उपासकानां व्यवहारतोऽलिखं प्रमाणसूत्रं पठनीय मस्त्यदः ॥ ८ ॥
मौनव्रतपञ्चकम्
वेदान्तपुस्तकमिदं पदरूपविग्रहम्, श्रीकृष्ण चन्द्रविभुना प्रतिवेलमेतत् ।
प्रव्यमुक्तमिह तत्त्वमिदं यथार्थम्, गीताभिधानमित एवं मनः स्वरूपम् ॥१॥
अस्त्येव चञ्चलमिदं मन एव तावन्मथ्नात्यदः पुरुषमेन इदं विधातुम् ।
अभ्यासतो मन इदं वशमेति तस्मात् मौनं भवेत्तु मनसो दृढमेव बन्धम् ॥२॥ मौने गुणा अपि तदाभिहिता अनेके, सद्भिर्जितेन्द्रियवरै र्जिनधर्म धुर्यैः ।
दोषा भवन्ति सकलाः स्वयमेव शान्ताः, तस्मात्समे व्रतमिदं परिपालयन्ति ॥ ३ ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ श्रावक धर्माष्टकम्
जो व्यक्ति सदा उपाश्रय नमन करने को जाए, नमन कर उनकी सुख-शान्ति पूछे और शुचि ईप्सित आहार लेने को जो स्वयं सादर निमन्त्रित करे, आदर के साथ गृहागत सती और सन्त को नमन करे। ( वह श्रावक होता है ) ॥ १ ॥
जो तिखुत्तों के साथ गृहागत सती-साधु को प्रणाम करे, जो विधान से शुचि आहार बनाकर समर्पित करे। (वह श्रावक होता है ।) ॥ २ ॥
यह कभी जीव-हिंसा नहीं करता, कभी जीवित को कष्ट नहीं देता, अपनी इच्छा से स्त्री-प्रसंग नहीं चाहता । बलात्कार की बात तो बहुत दूर है ॥ ३ ॥
जो सदा दूसरे के भले लिए चाहना करता है, और दूसरे की भलाई के यत्न करता है, जीवन में दूसरे को सुख हो, ऐसा मनुष्य इस संसार में जैन माना जाता है ॥४॥
जो दूसरे के हित से अपना जीवन निछावर करने के लिए तैयार रहता है। वास्तव में वह व्यक्ति जैन होता है। यों तो कहने के लिए बहुत से जैन होते है ॥ ५ ॥
यह अपनी इच्छा से बताता हूँ कि सन्त, सती, मनुष्य और स्त्री- ये चतुर्विध संघ कहलाता है ॥६॥
जो अणुव्रतधारी स्त्री और पुरुष जो नित्य बलिकर्म के साथ आदर-सत्कार करते हैं, वे दोनों धार्मिक जैन हैं ॥ ७ ॥
जैसा कि जैनागम में कहानियों का सार है, मैंने श्रावक धर्म कहा। उपासकों के रीति-रिवाज से भी लिखा। इससे प्रमाणसूत्र पठनीय है ॥ ८ ॥
तीर
मौनव्रतपञ्चकम्
श्रीकृष्णचन्द्र परमात्मा ने समय समय पर अपने विचार व्यक्त किये। वे श्लोकों का शरीर बना जिसका नाम गीता हुआ । यह वेदान्त की पुस्तक है। इसमें मन के स्वरूप को जैसा चाहिए, वैसा बताया है ॥१ ॥
यह मन चंचल है। मनुष्य को पाप करने के लिए मथता रहता है । अभ्यास से मन वश में आता है। मौन मन का दृढ़ बन्धन है ॥२ ॥
वैसे मौन के, जितेन्द्रिय जैन मुनियों ने अनेक गुण भी बताये हैं। स्वयं ही मौन से सभी दोष मिट जाते हैं। इस कारण से सभी मौन व्रत का पालन करते हैं ॥ ३ ॥
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