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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
संत वे मशहूर हैं
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योगिराज श्री पुष्कर गुरु
-श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ'
-कवि विजय मुनि जी म. (प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी म. के शिष्य)
योगिराज पुष्कर गुरु, ॐ नमो उवज्झाय। जोड़ गये इतिहास में, एक नया अध्याय॥
ज्ञान-संयम-त्याग-तप से जो सदा जीते रहे। आत्म-धन-स्वाध्याय रस को जो सदा पीते रहे ॥१॥
तारा गुरु से आपने, पाया उत्तम ज्ञान। लघुवय में दीक्षित हुए, जाने सकल जहान॥
नाम "पुष्कर" काम पुष्कर साम्य ऋजुता के धणी ।। पुष्कर मुनिजी हो गये हैं साधना की प्रिय मणि ॥२॥
जन्मे थे नान्देशमा, दीक्षा ली जालोर। पुण्य प्रभावी महामना, गुण का ओर न छोर॥
सरल भावी सहज सेवी श्रमणसंघ की शान थे । चौथ पद शोभित हुए मुनिराज वे गुणवान थे ॥३॥
सूरज वाली नन्द से, मिली धर्म की डोर। घूम-घूमकर आपने, किया जगत रसबोर॥
दिव्य है मेवाड़ माटी जग प्रसिद्धि छा गई । मुनि संघ में मनु मुक्ता ये निधि शोभा गई ॥४॥
सद्गुण चिन्तन चाँदनी, आत्म-शान्ति का धाम। ध्यान योग की साधना, करते थे अविराम॥
"धूल" जी महासति दिव्या, बोध जिनसे आप पाया । थे गुरु "तारा" सुहाने शिष्य जिनका बन पुजाया ॥५॥
गुरु दर पे जो भी गया, पाया सम्यग्ज्ञान। क्षमा दया के पुञ्ज थे, जीवन त्याग-प्रधान॥
हजैन जैनेतर विधा के बन गये विज्ञान वेत्ता । इशाह न्याय-ज्योतिष के वे ज्ञाता सुवचन के भी प्रणेता ॥६॥
अमित आपका ज्ञान था, शक्ति-सिन्धु गुरुदेव। मानव मन से आप की, सेवा करते देव॥
मौन जप की ध्यान की आराधना के स्तोत्र थे। श्रमणसंघ में आप भी वक्ता धरम की ज्योत थे ॥७॥
अनुशासन का सूत्र दे, पाया जग सम्मान। सदा बढ़ाया आपने, मर्यादा का मान॥
घूमकर कई प्रान्त में गंगा बहाई ज्ञान की। और भव्यों के सुमन में ज्योति जगाई ध्यान की ॥८॥
गुरु गुणाकर दीजिये, कृपा-दृष्टि का दान। सम्यग्दर्शन ज्ञान युत, सम्यक् होवे ध्यान॥
आपके ही शिष्य आचारज बने महाभाग ये । मुनिन्द्र ये देवेन्द्र हैं पाया सुखद सौभाग ये ॥९॥
नहीं दीखते जगत में, पर मन में है वास। अणु-अणु में तुम बस रहे, जैसे सुमन-सुवास॥
__देह से पुष्कर मुनि जी आज कोसों दूर हैं।
तत्व वेत्ता ध्यानयोगी संत वे मशहूर हैं ॥१०॥
वीर भूमि मेवाड़ की, उदयपुर है खास। सरगति पाई आपने, सब को किया निराश
काम
अंतिम समय आलोचना संलेखना स्वीकार कर । उदयपुर में देह त्यागी बहुत समता धार कर ॥११॥
प्रथम शिष्य आचार्यवर, शास्त्री मुनि देवेन्द्र। द्वितीय शिष्य हैं आपके, गणेश मुनि गुण-केन्द्र।।
हो विनत अर्चन करूँ पुष्कर सुमन श्रेय धाम को।। दादा गुरुवर ने दिया, उत्तम संयम रत्न। कीर्तन करूँ वंदन “विजय" त्रियोग से गुणधाम को ॥१२॥ 'मुनि जिनेन्द्र' नित कर रहा, ज्ञान-साधना यत्न॥
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