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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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उपाध्यायश्री को मेरा नमन
यति धर्म अर्थात् श्रमण धर्म को आपने सच्चे रूप में जीया था।
क्षमा, निर्लोभता, कोमलता, सरलता, सत्यता आदि सद्गुणों से -साध्वी 'सुधा'
मण्डित विभूषित था आपका महान यशस्वी जीवन! (शासन-प्रभाविका पूज्या श्री यशकुँवरजी म. की शिष्या) श्री पुष्करमुनि जी म. का जीवन सद्गुणों से महकता हुआ
गुलदस्ता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी, कुशल वाग्मी एवं वाणी उदित हुआ था एक दिव्य दिवाकर, अम्बर में नहीं किन्तु
के जादूगर थे। श्रेष्ठ कथाकार थे। बहुमुखी प्रतिभा से आपने अवनितल पर। सिमटारा की पुण्यमयी नगरी में पवित्रतम, ब्राह्मण
सद्साहित्य का सृजन कर माँ सरस्वती के कोष की अभिवृद्धि की। कुलभूषण पिता श्री सूरजमल जी एवं मातु श्री बाली के प्रांगण में।
आप कुशल शिल्पी थे। शिष्यों के जीवन-निर्माता थे। शिष्यों के माँ बाली ने बाल सूर्य को जन्म दिया था, जिसकी सहन-रश्मियों
जीवन को तीक्ष्ण छैनी से तराश कर दिव्य भव्य रूप प्रदान किया। को पाकर विश्व का कण-कण आलोकित हो चुका था। विश्व की
इसी के फलस्वरूप आपश्री के शिष्यरत्न श्री देवेन्द्रमुनिजी म. को सघन तमिस्रा को चीर कर वह अंशुमाली नव-प्रभात की नव-प्रेरणा
श्रमणसंघ के महान आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। लेकर युग-युग से सुषुप्त चेतना को जागृत करने के लिए उदित हुआ था।
कोमलता जीवन का मधु है। और इस मधुरिमा के संदर्शन होते
हैं आपके यशस्वी जीवन में। जो भी इस पुण्यात्मा के चरणारविन्दों "कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
में आया, आपकी अनुपम मधुरिमा से मुग्ध बन गया। आनन्द के वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।"
सागर में गोते लगाने लगा। कुल को पवित्र करने, और जननी को कृतार्थ करने के लिए
मेरेपन की भावना भव-भ्रमण को बढ़ाती है। ममता के पाश में ही महापुरुष जन्म लेकर इस धराधाम को धन्य बनाते हैं। उपाध्याय श्री जी ने भी जन्म लेकर वसुन्धरा को भाग्यशालिनी बनाया।
आबद्ध आत्मा विभाव की अँधेरी गलियों में भटकती है। विभावदशा
विष है और स्वभावदशा अमृत है, विभाव अंधकार है तो स्वभाव शुभ संस्कारों के जल से सिंचित आपश्री की जीवन-बगिया । प्रकाश है। सद्गुण सुमनों से सुरभित हो उठी।
राग से विराग की ओर, भोग से योग की ओर, भुक्ति से सुमधुर उषाकाल समापन की ओर अग्रसर था, और तरुणाई मुक्ति की ओर, वासना से उपासना की ओर, विनाश से विकास ने अंगड़ाई नहीं ली थी उससे पूर्व ही परम प्रभावी महामहिम
की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना ही जीवन है। युगपुरुष श्री ताराचंद्र जी म. की ओजस्वी अमृतवाणी से मोहममता की जंजीर टूट गयी और अन्तर् में वैराग्य की निर्मल
रागभाव का पूर्ण अवसान ही वीतरागता है। यही वीतरागता 0 दीपशिखा प्रज्वलित हो गयी तथा मां बाली का यह बाल सूर्य
| है, यही जीवन की शुद्धात्म दशा है। अतः वीतरागता की ओर साधना पथ की ओर चरण बढ़ाने को कृतसंकल्पित हो गया।
बढ़कर मुक्ति रमणी का वरण करो। यह पावन संदेश दिया था 4000
प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा को। पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, ऐसा कहा जाता है, लेकिन आज तक का इतिहास यह बताता है कि एक
नवकार महामंत्र जो कि १४ पूर्व का सार है, कष्ट विमोचक पारस दूसरा पारस नहीं बना सकता है। किन्तु इस पृथ्वी पर
है, जो जीवन में पग-पग पर मंगल के फूल खिलाता है, पर आपमहापुरुष ही ऐसे होते हैं जो अपने ही समान समीपस्थ मानव को
श्री की अगाध श्रद्धा एवं भक्ति थी। पूर्ण आस्था के साथ आपने इस बना सकते हैं, जो भी महापुरुष के चरणों का अनुगामी यदि बनता
महामंत्र का काफी जप किया था। आप महान् जप योगी साधक थे। है तो।
अतः आपने साधकों को नवकार मंत्र के जप की प्रेरणा प्रदान की। आत्मा से परमात्मा बनने के लिए, दिव्यज्ञान के धारक श्रद्धेय
ममता के बंधन से विमुक्त बनकर आपने अपने जीवन में श्री ताराचन्द्र जी म. के पावन चरणों में १४ वर्ष की लघु उम्र में
| समता की साधना की थी। जीवन को उच्च भव्य बनाने के लिए आपश्री ने भागवती दीक्षा अंगीकार की। आपकी संयम-साधना का
समता-सरोवर में अवगाहन किया था। ऐसे महान संतरल, संयम शुभारम्भ हुआ श्रद्धेय गुरुदेव के श्रीचरणों में।
साधना के मेरूमणि, अनुत्तर ध्यानयोगी उपाध्यायप्रवर श्री
पुष्करमुनि जी म. का यशस्वी दिव्य जीवन सभी को प्रेरणा प्रदान ध्यान साधना-पथ के पथिक का प्रमुख अंग है। ध्यान-साधना
करता रहेगा। यही मंगल-मनीषा है। को परिपूर्णता की ओर ले जाने का सोपान है, सिद्धि का द्वार है, यह मानकर ही आपश्री ध्यानयोगी बने। अन्तरात्मा की झांकी को
नमन है, वंदन है, अभिनंदन है, उस युग पुरुष को! जन-जन निहारने, आत्म-सौन्दर्य को निखारने, स्व-पर के ज्ञाता बनने के के वंदनीय, अर्चनीय, चेतनाशील व्यक्तित्व के धनी, पुण्यात्मा लिए।
पुण्यपुरुष को!
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