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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
बालक अम्बालाल ने पिता की अनुमति पाकर दीक्षा ग्रहण की। । युगपुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि।
श्रमण बनकर श्री पुष्कर मुनि जी म. ने अपने जीवन को
संयम-साधना, ज्ञानसाधना व गुरुसेवा में लगाया। ज्यों-ज्यों आप -आचार्य श्री विजय नित्यानन्द सूरि जी म.
युवा होते गए वैराग्य चादर की शोभा बढ़ती गई। सांसारिक सुखों जिनका हृदय शान्ति, दया, वात्सल्य आदि सुवासित सद्भावों
को ठुकराकर प्रभु महावीर के मार्ग (वाणी) 'अप्पदीपो भव' को का उद्गम स्थल है, जिनके स्वस्थ विचार, मौलिक चिन्तन एवं
अपनाने का आपका निश्चय अब सभी को आह्लादित करता था। "मित्ती मे सव्वभूएसु' का उदात्त दृष्टिकोण आज के अनास्था, कुण्ठा
आपका अधिकांश समय अध्ययन, मनन व समाज को नूतन दिशा तथा वैषम्य से भरे अनात्मपरक भौतिकवादी युग में अध्यात्म
देने में व्यतीत होता था। आप जगत एवं जीव के सच्चे द्रष्टा बने
इसीलिए तो आपके प्रवचनों में चेहरे के ओज-उल्लास व वाणी की तप-त्याग के दीपस्तम्भ हैं, जो धर्म, अध्यात्म-साधन, ज्ञान-संस्कृति,
मृदुता से अपार जन-समूह उमड़ पड़ता था। आपका तपःपूत साहित्य व अन्यान्य में पूर्ण निष्णात रहे, जो कुशल संगठक,
आशीर्वाद पाकर भक्त अहोभाव में निमग्न हो जाते थे। एक सुखद प्रखरवक्ता, रससिद्ध कवि, वैराग्य के सच्चे प्रेरक एवं देव-गुरु के
आश्चर्य तो यह रहता था आप श्रद्धालुओं को अपनी सुधासिक्त प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहे ऐसे उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी
वाणी से प्रसन्न व सन्तुष्ट करके ही भेजते थे इसीलिए आपके महाराज के व्यक्तित्व का आकलन करना मुझ जैसे सामान्य सन्त
भक्तों में विद्वान्, साहित्यकार, धनी-निर्धन एवं सामान्य सभी प्रकार की शक्ति व शब्द सामर्थ्य से परे है। हाँ, आपश्री का गुणानुवाद तो
के लोग होते थे। जितना भी किया जाए, कम ही होगा और गुणानुवाद का अवसर पाकर मैं स्वयं को भाग्यशाली मानता हूँ।
वैदिक, जैन व बौद्ध-तीनों दर्शनों के विशद एवं गहन
अध्ययन के कारण आपकी वक्तृत्व कला पर सदैव गम्भीर चिन्तन दक्षिणी राजस्थान के मेवाड़ अंचल में उदयपुर जिले के की छाप रहती थी। ऐसे युगपुरुष हजारों वर्षों में एक बार ही जन्म सिमटार ग्राम में वि. सं. १९६७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को लेते हैं। वास्तविकता तो यह है कि आप एक विशिष्ट अध्यात्मयोगी ब्राह्मणकुल में जन्मा बालक अम्बालाल नौ वर्ष की अल्पायु में ही सन्त थे। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है ‘पन्ना समक्खिए धम्म मातृविहीन बन गया था। माता बालीबाई की मृत्यु से बालक के मन । तत्तं तत्तविणिच्छियं-'तत्त्व का निश्चय करने वाली प्रज्ञा ही धर्म के में संसार की क्षणभंगुरता का विचार आया और सम्भवतः यही स्वरूप को देखती है।' सत्य ही, आपने अपनी तत्त्वविवेचिनी प्रज्ञा वैराग्यभाव की पहली किरण थी जो अम्बालाल के मन-मस्तिष्क में 1 से धर्म के ही सही स्वरूप का चिन्तन-मनन किया था। अतएव आप कौंध गई थी। उनका मन घर में अपने साथियों के साथ खेलने में स्वकल्याण के साथ परकल्याण में सदैव लीन रहे। जैनसाहित्य व नहीं लगता था क्योंकि मन में तो वैराग्य का बीज अपनी भूमि पा
दर्शन के घेरे से बाहर जाकर भारतीय वाङ्मय दर्शन एवं साहित्य चुका था और उस बीज को पानी, हवा देने का कार्य साध्वीप्रमुखा
का समन्वयात्मक अध्ययन करने तथा सभी धर्मों और धर्मपुरुषों के महासती श्री धूलकंवर जी ने किया तो प्रकाश देने का कार्य पूज्य
प्रति समान आदरभाव रखने की अपने व्यक्तित्व की विशेषता के गुरुदेव श्री ताराचंद जी म. ने किया। दीक्षा से पूर्व ही बालक
कारण ही समय-समय पर विभिन्न सम्प्रदाय के प्रधान सन्त तो
आपसे अध्यात्म चर्चा किया ही करते थे। देश के मूर्धन्य विद्वान्, अम्बालाल को साधुओं की वेशभूषा, उनके पात्रे व क्रिया-कलाप बड़े रुचिकर लगते थे। एक बार उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव से पूछा
राजनीतिज्ञ व समाज-सुधारक समाज को सही दिशा देने के लिए
आपसे विचार-विमर्श किया करते थे। कि जैन धर्म क्या है? पूज्य ताराचन्द्र जी म. ने अत्यन्त स्निग्धभाव से कहा
आपके साहित्य सृजन से आज श्रमण-श्रमणी परिवार ही नहीं स्याद्वादो विद्यते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते।
वरन् सुधी श्रावक-पाठक भी लाभान्वित हैं। उपन्यास, संस्मरण,
निबन्ध, प्रवचन साहित्य, कथा साहित्य व चिन्तन साहित्य सभी पर नास्त्यन्यपीड़नं किंचिज्जैनधर्मः स उच्यते ॥
आपने अपना लेखन कार्य किया। जैन कथाओं के एक सौ ग्यारह -जिसमें स्याद्वाद है, पक्षपात नहीं है तथा किंचित् मात्र भी भाग के अतिरिक्त पुष्कर प्रभा, सागर के मोती, अमर पुष्पांजलि, परपीड़न नहीं है, उसे जैनधर्म कहते हैं।
संगीत सुधा, भक्ति के स्वर आदि आपके गीतों के संग्रह हैं। संस्कृत "हे वत्स! संसार में एकमात्र धर्म ही आत्मा का रक्षक है, यही
में आप द्वारा रचा गया 'अमरसिंह महाकाव्य' आपको साहित्यकारों
की प्रथम पंक्ति में प्रतिस्थापित करता है। आप द्वारा लिखे गए दीपक के समान अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला है, जरामरण के वेग से बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है।
भजन राजस्थान में बहुत लोकप्रिय हुए हैं। इस धर्म की आराधना करने से तुम अजर-अमर स्थान प्राप्त कर
ऐसे प्रज्ञाप्रदीप, ज्योतिर्धर नक्षत्र व अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री सकते हो।"
पुष्करमुनि जी महाराज आज हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु उन्होंने
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