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________________ १० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 366 अनुकरणीय सीमा तक पूर्ण किया है। वर्तमान में विशाल श्रमण संघ 'पुष्कर' नाम आकाश का भी है। यथा-"विहाय आकाश के अनुशास्ता सरस्वती के मानसपुत्र, साहित्यकार विद्वद्वरेण्य । मनन्तपुष्करे।" इस प्रकार अनन्त के साथ पुष्कर का प्रयोग हुआ आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्रमुनि जी महाराज हैं। आप अपनी समस्त है। जिसका ओर-छोर नहीं मिलता, जो भारी प्रतिकूलताओं से घिरा उपलब्धि का श्रेय अपने पूज्य गुरुदेव उपाध्याय जी को देते हैं। मैं हुआ भी कभी अपनी निर्मलता नहीं खोता, वह विष्णुपद देवमार्ग तो परमपूज्य प्रबुद्ध सन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. तथा बना रहता है। पुष्कर नाम कमल का भी है। पुष्कर से संयोग से महाप्रभावक महान विद्वान आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. दोनों को 'पुष्करिणी' नाम बावड़ी का बनता है। 'पुष्करराज' तीर्थ तो विरल समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रखर विचारक मानता हूँ। आचार्य श्री तीर्थों में गिना ही जाता है। अस्तु, इन सभी पर्यायगत नामों को जी की तो सदैव व्यक्तिगत रूप से मुझ पर बड़ी अनुकम्पा रही है। अपने जीवन के अनर्घ्य पहलुओं से सार्थक बनाता हुआ महामनस्वी आपकी सरलता व सहजता को देखकर तो बस यही लिख । उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी का अभिधान कवियों की कल्पनाओं सकता हूँ में साकार बना है इसीलिये यथा नाम तथा गुणाः वाली उक्ति एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् । शतप्रतिशत चरितार्थ हुई प्रतीत होती है। पृथिव्यां नास्ति तद्व्यं यद्दत्त्वा चानृणी भवेत् ॥ -गुरु जो शिष्य को एक अक्षर भी उपदेश करते हैं उस निमित्त पृथ्वी पर कोई ऐसा द्रव्य नहीं है, जिसको देकर शिष्य प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी : उनसे उऋण हो सके। उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. । उपरोक्त सूक्ति के अनुसार आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी कदापि -युवाचार्य डॉ. शिवमुनि जी म. अपने पूज्य गुरुजी से उऋण नहीं हो सकते किन्तु मैं ऐसा मानता हूँ कि आप जैसे जाज्वल्यमान शिष्य ने पूज्य गुरुदेव के यश को श्रमण संस्कृति अध्यात्म की भित्ति पर तथा तप और त्याग की दिग्-दिगन्त तक प्रचारित व प्रसारित कर एक अनुकरणीय प्रतिमान आधारशिला पर आधारित है। श्रमण का जीवन साधनामय होता स्थापित किया है। इससे जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय नहा आपतु सम्पूर्ण भारतीय है, वह स्वाध्याय, तप और ध्यान की आध्यात्मिक रूपी त्रिवेणी में समाज आपके व आपके गुरुवर के सदैव ऋणी तथा आभारी रहेंगे। स्थापित होकर अपने अंतःकरण में अहिंसा-संयम-तपरूपी धर्म-दीप को प्रज्ज्वलित करता है, तथा उसकी धवल ज्योति में जीवन को कंचनमय बनाता हुआ सारे संसार को अपनी गहरी अनुभूति का यथा नाम तथा गुणाः दिग्दर्शन कराता है, और वह सदा-सदा के लिए विश्व जन समुदाय का एक मार्गदर्शक बन जाता है। -आचार्यश्री चन्दन मुनि जी म. उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. आगम साहित्य के व्यक्ति मात्र पूजनीय नहीं होता, सद्गुणपूर्ण गुणमंडित व्यक्तित्त्व प्रबुद्ध चिन्तक एवं गम्भीर तत्ववेत्ता थे। जैन सिद्धान्त के स्तोक पूजनीय होता है। एक रससिद्ध महाकवि ने कहा है साहित्य पर आपका परिपूर्ण अधिकार था। आपकी साहित्यिक ज्ञान गरिमा अद्वितीय थी। आपने कविता के माध्यम से अनेक चरित्रों वदनं प्रसादसदनं, सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः । का प्रणयन किया था। आपका विपुल कथा साहित्य धार्मिक जनता करणं परोपकरणं, येषां केषां न ते वन्द्याः ॥ के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। जिनके मुखारविंद पर प्रसन्नता निवास करती हो, जिनके हृदय आप स्थानकवासी जैन समाज के मूर्धन्य संत रन थे। आपके सरोवर में दया हिलोरें मारती हो, जिनकी सहजवाणी अमृत वर्षाती प्रखर पाण्डित्य से प्रभावित होकर सादड़ी सन्त सम्मेलन में साहित्य हो, जिनकी प्रत्येक क्रिया परोपकारमयी हो वे महामना किनके शिक्षण पद पर आपको अधिष्ठित किया गया। भीनासर सम्मेलन में वन्दनीय नहीं होते? अर्थात् वे सभी के वन्दनीय होते हैं, उपास्य मंत्रीपद पर नियुक्त हुए। तत्पश्चात् अजमेर शिखर सम्मेलन में परामर्शदात्री समिति के मनोनीत सम्माननीय सदस्य बने। उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी उसी प्रकार के महामनस्वी थे। श्रमण संघ के समग्र विकास के लिए आप सदा प्रयत्नशील गीर्वाणवाणी में 'पुष्कर' नाम जल का है। "नीरं वारि जलं " रहते थे। आपने आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी म. के सान्निध्य प्रभृति नामों में "क्षीर पुष्कर" सुस्थान पाता है। जल जीवन है, में रहकर श्रमणसंघ के उत्कर्ष में सतत् योगदान दिया है। आपके जल अमृत है। "पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्"- पृथ्वी साथी श्रमण संघ से पृथक् हो गये फिर भी आपकी आस्था श्रमण पर तीन रल हैं उनमें जल पहला है, प्रमुख है, अत्यन्तोपयोगी है। संघ के प्रति अटूट थी। RS होते हैं। 1000000000000 1903930ichawaljalnelibrary bred
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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