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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
१५७ स्थलों का पर्यटन करने के मुझे बहुत अवसर मिले। साथ ही उन्होंने मूक आशीर्वाद की सहायता से विद्वत्-शिरोमणि ही नहीं अपितु यह भी फरमाया था कि-"सरस्वती का भी इसे वरदान मिलेगा। संघ-शिरोमणि महामहिम आचार्य सम्राट् बन गए। और लोग इसे याद रखेंगे।" यह तो मैं नहीं जानती कि देवी सरस्वती के भंडार में मुझ अकिंचन को कुछ स्वीकार हुआ या नहीं,
एक दीप बुझा, पर सहस्र रश्मियों से प्रदीप्त दीपक जला गया किन्तु पूज्य गुरुदेव के दोनों आशीर्वचन मुझे अक्षरशः स्मरण रहे हैं इतिहास प्रसिद्ध उदयपुर शहर में चारों दिशाओं से जनता सदा ही जो उनके मुखारबिंद से निःसृत हुए थे।
अपने नए आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के चादर-महोत्सव इसी प्रकार और एक बार स्वयं विद्वत्-प्रवर होने पर भी वे
पर उमड़ रही थी। सभी ओर आनन्द महोत्सव अपनी चरम सीमा पिताजी से जैन दर्शन संबंधी विभिन्न विषयों पर वार्तालाप कर रहे
पर था, किन्तु उसके सम्पन्न होने के बाद ही मूर्धन्य संत, महान् थे और मैं मात्र उनके दर्शन और बिना अधिक समझते हुए भी
साधक, परम तपस्वी, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. की अत्यधिक दोनों के प्रश्नोत्तरों को सुन रही थी कि, इतने में ही उनके
अस्वस्थता के समाचार फैलने लगे और उसके बाद ही स्वनामधन्य बालशिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी वहाँ अपनी कापी और पेन्सिल लेने
उन संत-शिरोमणि के देहत्याग की घोर वन रूप दुःखद सूचनाएँ आ गए। उन्हें देखते ही दोनों की बातचीत ने रुख बदल लिया।
प्रसारित हो गईं। श्रद्धेय व मंगलमूर्ति गुरु म. मुस्कुराते हुए कह उठे
ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे जीवन की सम्पूर्ण शक्ति से अपने शिष्य
को श्रमणसंघ के सर्वोच्च पद पर आसीन कराने तक उन्होंने म "भारिल्ल साहब और सब समस्याएँ तो सुलझती रहेंगी, किन्तु
न महाकाल को भी अपने निकट नहीं फटकने दिया था। या कि-जबइस मूर्तिमान और सबसे बड़ी समस्या को कैसे सुलझाऊँ ? यह
तक स्वयं प्रज्वलित दीपक को चरम प्रकाशमान नक्षत्र का रूप न 2004 बताइये।"
लेने दिया तब तक अपनी दिव्य शक्ति से काल को अपनी जीवनपिताजी ने हँसते हुए कहा-“महाराज जी! इन्होंने आर्हती दीक्षा परिधि में नहीं आने दिया। किन्तु जब उन्होंने अपने जीवन भर की 10 ग्रहण कर ली और अब आपके संरक्षण में हैं। भला अब क्या साधना, कुशलता और निमग्नता से गढ़ी हुई प्रतिमा को सम्पूर्ण समस्या रह गई है?"
कलाओं से मंडित कर सर्व-पूज्य बना दिया तो नज़र भरकर उसे विहँसते हुए गुरुदेव बोले-'भाई! यह सब तो ठीक है पर इस । देखा और पूर्ण संतोष, आनन्द एवं शांतिपूर्वक अपने नयन मूंदें। देवेन्द्र को आप देख तो रहे हैं। यह इतना नाजुक है कि कुछ न । तथा चिरनिद्रा को अपना लिया। महाभारत के भीष्म की तरह कुछ व्याधि इसे बनी ही रहती है। मैं यही सोचता रहता हूँ कि अपना कार्य सम्पन्न करके इच्छा-मृत्यु का वरण करने वाली उस इससे जब अपने शरीर का बोझ ही नहीं सँभलता तो ज्ञान का बोझ महान् आत्मा को मेरी शत-शत वंदना। इस पर कैसे डालूँ ? आप तो लेखन कार्य के अलावा साधु-साध्वियों को ज्ञान-दान देते हैं, कोई उपाय बताइये?"
मेरा दर्द मिट गया (एक संस्मरण) ) इस बात पर वहाँ बैठे हुए सभी हँस पड़े। पिताजी ने मुस्कुराते
-श्रीमती रोशन देवी, प्रताप नगर (चित्तौड़गढ़) हुए कहा-"उपाय केवल यही है कि अभी तो ये बाल मुनि ही हैं, अतः इनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए हल्के-फुल्के थोकड़ों आदि
मैं दिनांक १२ सितम्बर सन् १९९२ को अपने पति व परिवार DD से जबानी थोड़ा बहुत सिखाते रहिये, और उम्र के कुछ बढ़ने पर
सहित पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के दर्शन करने हेतु जब इनका स्वास्थ्य समीचीन हो जाए तथा बुद्धि भी और विकसित
। चित्तौड़गढ़ से रवाना हुई किन्तु दुर्भाग्यवश जोधपुर पहुँचते-पहुँचते न हो तभी आगमादि का रहस्य व गूढ़ ज्ञान कराइये। बुद्धि इनकी
वर्षा अधिक हो गई कि चारों तरफ बाढ़ आ गई और गढ़सिवाना अत्यन्त कुशाग्र है और तब ये सहज और शीघ्र ही आपका प्रदत्त ।
| पहुँचने का रास्ता बन्द हो गया और हम पुनः चित्तौड़गढ़ वापस भार वहन कर लेंगे।"
पहुँच गये। स्वर्गीय गुरुदेव से होने वाले ऐसे सरल, मधुर और आत्मीयता
दिनांक २१.९.९२ की रात्रि लगभग १ या २ बजे होंगे मालूम से परिपूर्ण अनेक वार्तालाप के प्रसंग मुझे याद हैं और याद है
। हुआ कि जैसे मुझे गुरुदेव के दर्शन हुए। तत्काल मैंने अपने पति से उनका स्नेहपूर्ण सहज एवं सारगर्भित व्यक्तित्व।
बात कही और गुरुदेव के दर्शन हेतु चलने के लिए कहा। उसी व कल का नाजुक शिष्य, आज श्रमण-संघ का सिरमौर समय वे भी तैयार हो गये तथा रात्रि को लगभग ३ बजे बस से
रवाना हो हम गढ़सिवाना पहुँचे। वस्तुतः दिवंगत गुरुवर्य उपाध्यायश्री अपने जिस कोमल-कान्त शिष्य को ज्ञानाभ्यास कराने के लिये भी सोच-विचार करते थे, वही पूज्य आचार्यश्री की दर्शन वन्दना की पर आचार्यजी ने हमें DOG शिष्य ज्ञान के सोपानों को अनवरत नीचे छोड़ते चले गए और बैठने को मना कर सीधे गुरुदेव के इस समय दर्शन कर लो, ऐसा 05 अपने गुरु की छत्र-छाया, उनके प्रयास एवं अहर्निश प्राप्त होने वाले फरमा कर गुरुदेव के पास रवाना कर दिये।
देव बोले-'भाई! यह
है कि कुछ ना कार्य सम्पन्न क
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