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। तल से शिखर तक
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आज धनिक और गरीब के बीच आर्थिक वैषम्य की गहरी अपनी अलग विशेषता रखता है। जैन परम्परा एक ओर धर्म है, खाई दिखाई देती है। इस अपरिग्रह को अपना कर शीघ्र ही पाटा वहीं दूसरी ओर दर्शन है। उस दर्शन में मेधा और श्रद्धा का समान जाना चाहिए। राष्ट्रकवि दिनकर ने विषमता का मार्मिक चित्रण । रूप से विकास किया गया है। जैनदर्शन में जितना महत्त्व विश्वास किया है
अथवा श्रद्धा को दिया गया है, उतना ही तर्क को भी। विश्वास की श्वानों को मिलता दूध, वस्त्र,
दृष्टि से जैन परम्परा धर्म और तर्क की दृष्टि से दर्शन है। भूखे बालक अकुलाते हैं।
जैनदर्शन के दो विभाग हैं-व्यवहार पक्ष और विचार पक्ष। माँ की हड्डी में चिपक, ठिठुर,
व्यवहार पक्ष का आधार अहिंसा है और विचार पक्ष का आधार जाड़े की रात बिताते हैं।
अनेकान्त है। अहिंसा के आधार पर सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, युवती की लज्जा वसन बेच,
अपरिग्रह आदि व्रतों का विकास हुआ है तथा अनेकान्तवाद के जब ब्याज चुकाए जाते हैं।
आधार पर नयवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी का विकास हुआ है। मालिक तब तेल-फुलेलों पर,
जैन परम्परा का अनेकान्तवाद विभिन्न दर्शनों में विभिन्न नामों से ।। पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
मिलता है। बुद्ध ने उसे विभज्यवाद की संज्ञा दी है। बादरायण के
ब्रह्मसूत्र अथवा वेदान्त में उसे समन्वय कहा गया है। मीमांसा, "अतः आज 'सादा जीवन, उच्च विचार' की आवश्यकता है। सांख्य, न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी भावना रूप से उसकीs ad सम्राट् चन्द्रगुप्त के महामंत्री चाणक्य एक कुटिया में अल्प-परिग्रह उपलब्धि होती है। किन्तु अनेकान्तवाद का जितना विकास जैन के साथ ही रहते थे। वृक्ष के नीचे बैठकर समस्त भारतवर्ष का सूत्र दर्शन में हुआ है उतना अन्य किसी परम्परा में नहीं। संचालन करते थे। वियतनाम के जनप्रिय राष्ट्रपति हो-ची-निन्ह भी ।
जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकान्तवाद के समान ही कर्मवाद सादगी और अपरिग्रह की मूर्ति थे। बाँस और मिट्टी के कच्चे
पर भी विस्तार से चिन्तन किया गया है। कर्म, कर्म का फल और मकान में ही उनका आवास था। वियतनाम की जनता ने उनके इस ।
करने वाला-इन तीनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैन दृष्टि से जो कर्म अपरिग्रही स्वरूप को सर्वश्रेष्ठ मानकर उन्हें राष्ट्रपति पद पर
का कर्ता है, वही कर्मफलभोक्ता भी है। जो जीव जिस प्रकार के DRD सुशोभित किया था, ठीक हमारे राष्ट्रपति राजेन्द्रबाबू के समान।"
कर्म करता है, उसके अनुसार शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के फल वी. एस. पागे
भोगता है। पूना-वर्षावास। सन् १९७५ उस समय “जैन दर्शन : स्वरूप कर्म और कर्मबन्धन से मुक्त होने को मोक्ष कहा गया है। जैन और विश्लेषण” ग्रन्थ का विमोचन करने हेतु महाराष्ट्र विधान । दर्शन में मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण, इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। सभा के अध्यक्ष श्री वी. एस. पागे उपस्थित हुए। गुरुदेव ने । मुक्ति आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। मोक्ष अवस्था में आत्मा भारतीय दर्शन पर विचार प्रस्तुत करते हुए कहा-भारतवर्ष । अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। उसमें अन्य किसी प्रकार का दार्शनिक देश है। दर्शनों की जन्मस्थली है। चार्वाक् दर्शन को विजातीय तत्व नहीं होता।" छोड़कर भारत के अन्य सभी दर्शनों का मुख्य ध्येय आत्मा और
। इस प्रकार जैन दर्शन के इतने गंभीर एवं व्यापक विश्लेषण उसके स्वरूप का प्रतिपादन है। चेतन और अवचेतन के स्वरूप को
को सुनकर पागे जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-जैन दर्शन जितनी सूक्ष्मता से भारतीय दर्शन ने समझाने का प्रयास किया है
वस्तुतः अद्भुत है, अनूठा है। विश्व का अन्य कोई दर्शन उसकी उतना विश्व के किसी अन्य दर्शन ने नहीं। यूनान के दार्शनिकों ने
समता नहीं कर सकता। भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, किन्तु शैली की सुन्दरता के बावजूद चेतन और परम चेतन के स्वरूप का विश्लेषण
डॉ. श्रीमालीजी इतना गंभीर और मौलिक नहीं है जितना होना चाहिए था।
भारत के भूतपूर्व शिक्षामंत्री डॉ. कालूलाल श्रीमाली मनीषी यूरोप का दर्शन आत्मा का दर्शन न होकर प्रकृति का दर्शन है।
विद्वान् थे। वे मैसूर में गुरुदेव श्री की सेवा में अनेक बार उपस्थित अतः एकांगी रह जाता है। भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति के स्वरूप का
हुए तथा गुरुदेव श्री तथा उनके शिष्यों द्वारा विरचित साहित्य को भी चिन्तन है, जीवन और जगत की भी उपेक्षा नहीं है, किन्तु वह
देखकर अत्यन्त प्रमुदित हुए। उन्होंने कहा-शोध प्रधान तथा चिन्तन चैतन्य के प्रतिपादन हेतु है।
तुलनात्मक दृष्टि से जो साहित्य निर्माण हो रहा है वह प्रशंसनीय है 900
तथा आज के सन्दर्भ में बहुत आवश्यक भी है। “जैन कथाएँ" तर्क और दर्शन का मधुर समन्वय है भारतीय दर्शन। उसमें
देखकर तो वे विस्मित भी हुए तथा कहने लगे कि जैन साहित्य में आध्यात्मिक चिन्तन की प्रेरणा है। मात्र बौद्धिक विलास नहीं। दर्शन
कथा-साहित्य का इतना विपुल भंडार है, इसकी तो मुझे कल्पना का अर्थ है सत्य का साक्षात्कार करना। फिर भले ही वह सत्ता तक नहीं थी। प्राचीन जैनाचार्यों ने वास्तव में कथाओं के माध्यम से चेतन की हो अथवा अचेतन की। भारतीय दर्शनों में भी जैनदर्शन । जीवन के अदभत तत्त्व बडी सगमता से प्रस्तत किए हैं।
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