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लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय, आन्तरिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण, मन्त्र-तन्त्रादि साधना, शाश्वत सुख-शांति एवं विद्यार्थी जीवन आदि समस्त क्षेत्रों में ब्रह्मचर्य की सार्वयिक और सार्वकालिक अनिवार्यता है।"
इसी खण्ड में उन्होंने ब्रह्मचर्य को सभी व्रतों का मुखिया भी. प्रतिपादित किया है। इसे गुणों का नायक भी बताया है। यह दृष्टिकोण यथार्थ है। क्योंकि अब्रह्मचर्य में मानसिक विकार बने रहते हैं और अपने उद्देश्य भोग की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के हथकण्डे अपनाये जा सकते हैं जिससे सभी प्रकार की छल प्रपंच/ कपट / झूठ /हिंसा आ जाते हैं। यदि ब्रह्मचर्यव्रत का संकल्प है तो फिर विचारों में उज्ज्वलता बनी रहती है। वहाँ तो निर्मल निर्झर बहता रहता है। ऐसे में ही उत्तम कार्य संपन्न होते हैं। इसलिए यदि ब्रह्मचर्य को सभी व्रतों का गुरु कहा गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने इस खण्ड में ब्रह्मचर्य के प्रभाव और उसके कुछ अद्भुत चमत्कारों का भी उल्लेख किया है। ऐसे उद्धरण ब्रह्मचर्य पालन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। साधक को प्रोत्साहित करते हैं। साधक उनको अपना आदर्श मान लेता है या मानने लगता है और जब कभी मन विचलित होता है तब ये उद्धरण उसे शक्ति प्रदान करते हैं। उन्होंने ऐसे कुछ प्रेरक उद्धरण भी दिये हैं।
ब्रह्मचर्य के माहात्य के अन्तर्गत उन्होंने ब्रह्मचर्य को जीवन की खाद के रूप में निरूपित किया है। जिस प्रकार फसल को खाद मिलती है और वह विकास कर लहलहा उठती है, ठीक उसी प्रकार जीवन को ब्रह्मचर्य की खाद मिलने से वह उज्ज्वल से उज्ज्वलतर स्थिति को प्राप्त करता है। इसकी साधना से मुक्ति का द्वार खुल जाता है। उन्होंने यहाँ ब्रह्मचर्य को समाज सुधारों का मूलाधार निरूपित किया है, जो सत्य है। इस प्रसंग में उन्होंने कुछ ऐतिहासिक दृष्टांत प्रस्तुत कर अपने कथन को पुष्ट किया है।
उन्होंने लिखा- "सचमुच ब्रह्मचर्य जीवन का अमृत है, वासना मृत्यु है, ब्रह्मचर्य अनन्त सुख है, वासना अशांति एवं दुःख का खारा सागर है, ब्रह्मचर्य शुद्ध ज्योति है, वासना पाप-कालिमा है। ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश है, अब्रह्मचर्य अज्ञान तिमिर है, ब्रह्मचर्य अजन अजेय बल है, अब्रह्मचर्य जीवन की दुर्बलता, कायरता और पामरता है। ब्रह्मचर्य जीवन का ओज और तेज है, अब्रह्मचर्य ग्लानि और निःसत्यता है। ब्रह्मचर्य ही साहस, शक्ति, उत्साह और प्राण बलदाता है। यही जीवन के सर्वांगीण विकास का स्रोत है। विशुद्ध ब्रह्मचर्य साधक पूज्यों का भी पूज्य बन जाता है। यही संयम, नियम, तप, शील आदि का मूलाधार है। यही सब व्रतों-नियमों में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ है।
ब्रह्मचर्य एक चिन्तामणि रत्न के समान है। जब रत्न प्राप्त हो जाता है तो फिर किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं रहती । ब्रह्मचर्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
की साधना से अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मनोवांछित कार्य स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य का साधक किसी का मोहताज नहीं रहता, वरन् सभी उसकी कृपा पाने के लिए लालायित रहते हैं।
ब्रह्मचर्य की साधना से अनेक ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ और लब्धियाँ प्राप्त होने का भी विवरण दिया गया है। यहाँ तक कि वर्तमान युग में भी ब्रह्मचर्य एवं तप के प्रताप से कई साधु-साध्वियों को वचनसिद्धि एवं वचन लब्धि प्राप्त हुई है।
इस प्रकार पुस्तक का प्रथम खण्ड पढ़ने के पश्चात् पाठक इस विषय के प्रति निश्चित ही आकर्षण का अनुभव करने लगेगा।
द्वितीय खण्ड-स्वरूप दर्शन के अन्तर्गत प्रवचनकार ने ब्रह्मचर्य के अर्थादि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। ब्रह्म और चर्य का विश्लेषण करने के पश्चात् उन्होंने ब्रह्मचर्य का पूर्ण अर्थ इस प्रकार किया है- "आत्मा में रमण करना अथवा परमात्मा (परमात्म भाव ) में विचरण करना अथवा वेदाध्ययन का आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है, अथवा वृहत् या महान् में विचरण करना, विराट में रमण करना भी ब्रह्मचर्य है। (पृष्ठ १३८) । इसी अध्याय में आगे उन्होंने ब्रह्मचर्य के विभिन्न अर्थों को विस्तार से स्पष्ट किया है, जिससे प्रतिपाय विषय को समझने में पाठकों को सुविधा होती है। यहीं एक बात का उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा। वह यह कि यहाँ उन्होंने जैनेतर धर्मग्रन्थों का भी संदर्भ ग्रहण किया है। इससे विषय और अधिक स्पष्ट हो गया है। वह एकांगी नहीं रह गया है। इसी अध्याय के अंत में ब्रह्मचर्य के विलक्षण अर्थ भी दिए गए हैं। ये अर्थ जैन ग्रन्थों के आधार पर दिए गए हैं। एक दो उदाहरण द्रष्टव्य है- " जिसके पालन करने पर अहिंसादि गुण बढ़ते हैं, वह ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म में विचरण करना ब्रह्मचर्य है। (पृष्ठ १४६) । पंच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति रूप चारित्र क्योंकि वह शांति और (आत्म-गुणों की) पुष्टि का कारण है; उक्त ब्रह्म में रमण करना ब्रह्मचर्य है।” (पृष्ठ १४६ ) ।
इन्द्रिय संयम के बिना ब्रह्मचर्य की कल्पना नहीं की जा सकती इसलिए उन्होंने इन्द्रिय संयम को ब्रह्मचर्य का प्रवेश द्वार बताया है। वास्तव में जब तक इन्द्रिय संयम नहीं होता, ब्रह्मचर्य की बात करना ही बेमानी होती है। इसी के साथ उन्होंने स्त्री-स्पर्श के परित्याग की भी चर्चा की है किन्तु इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्त्री-स्पर्श ब्रह्मचारी के लिए किस परिस्थिति में साधक होता है। इस संदर्भ में उनका कथन दृष्टव्य है- "ब्रह्मचर्य साधक के लिए किसी विशेष परिस्थिति में स्त्री-स्पर्श ब्रह्मचर्य बाधक है या ब्रह्मचर्य साधक ? इसका निर्णय ब्रह्मचर्य-साधक की. निर्विकार मनोदशा पर निर्भर है। रुग्ण सेवा, अशक्ति, विपत्ति, गुण्डों से रक्षा, विक्षिप्तता अथवा ऐसी ही किसी गाढ़ संकटापन्न परिस्थिति में यदि पुरुष-साधक निर्विकार भाव से मातृ-भगिनी-भाव या पुत्रीभाव से स्त्री का स्पर्श करता है, इसी प्रकार स्त्री-साधिका निर्विकार भाव से
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