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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीव हैं। यद्यपि वे पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य की तरह अभिव्यक्त नहीं किया है। कुदरत के संतुलन हेतु प्रत्येक प्राणी का आहार-बिहारकर सकते पर उनमें सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूति होती है यह / रूप-रंग आदि निश्चित हैं। मनुष्य को मूलतः निरामिष भोजी ही शास्त्रों में कहा गया है और वर्तमान विज्ञान ने भी प्रयोगों से इस बनाया गया। आश्चर्य तो इस बात का है कि अन्य किसी प्राणी ने तथ्य को सत्य पाकर उसका स्वीकार किया है। वनस्पति पर ऐसे । अपने नैसर्गिक जीवन को न तो बदला न तोड़ा। पर, मनुष्य ने प्रयोग हुए हैं कि यदि दो पौधे अलग-अलग अच्छी और दुष्ट प्रकृति उसमें आमूल तोड़-फोड़ की उसने अपना भोजन और जीवन का के मनुष्य में लगाये हों तो उनकी वृद्धि में फर्क देखा गया। इसी क्रम बदल डाला। जीभ के क्षणिक स्वाद के लिए उसने अनेक भोले प्रकार यदि एक पौधे को प्यार से और दूसरे को तिरस्कार से प्राणियों का वध किया। उनका भक्षण किया और उदर को सींचा गया तो उनकी वृद्धि में भी पर्याप्त अंतर देखा गया। और श्मशानगृह बना दिया। विवेकहीन होकर वह करुणा-दया को यह भी निरीक्षण से सिद्ध हुआ है कि एक पौधे को सुन्दर संगीत भूलकर क्रूर बनकर हत्यायें करने लगा। अरे ! हिंसक भोजी पशु सुनाया गया तो उसकी वृद्धि अकल्पित ढंग से हुई। इन सब प्रयोगों भी जब तक भूख नहीं लगती-शिकार नहीं करते। पर, इस मनुष्य से इन एकेन्द्रिय स्थावर में जीव की पुष्टि होती है। उनके सुख-दुख ने निहत्थे, निर्दोष पशुओं को मारकर उसे भोज्य बनाया। की अनुभूति का परिचय मिलता है।
पशु-पक्षियों की कल आम बात हो गई। शास्त्रों में लिखा है कि जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है "जिओ और जीने की
माँसाहारी एक जीव का ही वध नहीं करता पर माँस में उत्पन्न सुविधा प्रदान करो।" इसी सिद्धान्त का उमास्वामी ने 'परस्परोपग्रहो
अनन्त त्रस जीवों की भी हिंसा करता है। प्रवचनसार में इसीलिए जीवानाम्' द्वारा प्रतिपादन किया। दोनों सिद्धांत और सूत्र प्रत्येक
श्रमण को युक्ताहारी कहा है। ऐसा ही उपदेश सागारधर्मामृत आदि प्राणी के प्रति सहिष्णुता एवं सहयोग के प्रतीक हैं। थोड़ा विचार
ग्रंथों में है। "मद्य-माँस-मधु" का सर्वथा त्याग इसी जीवहिंसा के करें कि जिस प्रकार हमें अपना जीव प्यारा है। थोड़ा-सा कष्ट भी।
संदर्भ में कराया जाता है। तभी इनकी गणना अष्टमूलगुण के हमें व्याकुल कर देता है। यत्किंचित भी अन्य द्वारा दी जाने वाली
अन्तर्गत की गई है। प्रवचनसार में आचार्य कुंदकुद ने कहा-“पके शारीरिक या मानसिक पीड़ा हमें प्रतिशोध से भर देती है-फिर हम
हुए या कच्चे माँस के खंडों में उस माँस की जाति वाले निगोद यह महसूस क्यों नहीं करते कि अन्य सभी एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय
जीवों का निरंतर जन्म होता है। जो जीव पक्की या कच्ची माँस की जीवों को भी ऐसी ही संवेदना होती होगी। जैसे हम सुख से जीना
डली खाता है या स्पर्श करता है वह अनेक करोड़ जीवों का चाहते हैं वैसे ही प्रत्येक प्राणी भी अपने ढंग से जीना चाहता है।
निश्चित रूप से घात करता है। इतना ही नहीं अंडा, कंदमूल आदि फर्क इतना है कि हमने अपनी बुद्धि-विकास-चतुराई या बुद्धि के
को अभक्ष्य इसीलिए माना है कि उससे जीव हिंसा निश्चित रूप से विकार से अपना जीना ही महत्त्वपूर्ण माना। अपनी सुख सुविधा के
होती है। हिंसा एवं माँसाहार के दूषणों से शास्त्र भरे पड़े हैं। यहाँ लिए दूसरों का घात किया, कष्ट दिया और उनका विनाश किया।
उनकी भावना ही प्रस्तुत है। अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सके। उनकी असहाय स्थिति को समझ इसी प्रकार भोजन के उपरांत शिकार के व्यसन ने भी इस कर उनके मौन दर्द को जान कर यदि हममें यह संवेदना जाग जाये | मानव को हिंसा-पशुवध के लिए उकसाया है। शिकारी का विकृत तो निश्चित रूप से हम अनुभव करेंगे कि जैसी सुखात्मक-दुखात्मक मानसिक शीक निरपराध प्राणी की जान ले लेता है। काश ! शिकारी अनुभूति हमारे अंदर घटित होती है-वैसी ही प्रत्येक प्राणी में घटित उस पशु-पक्षी की आँखों की करुणा-असहायता को देख पाता। होती है। यदि हमारे पास बुद्धि और शक्ति है तो हमें उन सभी शिकारी स्वभाव से क्रूर ही होता है। कुदरत के धन पशु-पक्षियों का प्राणियों को जीने की सुविधा प्रदान करनी होगी जो उनका भी वध करके आनंद प्राप्त करने वाले मानव को क्या कहें ? घर की जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए दया-करुणा-क्षमा और ममता के दीवान खाने सजाने को उसने कितने मासूमों की जान लीं। भावों का विकास करना होगा। ये भाव जैन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में
इसी प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन देखें तो अहिंसा के गुण से ही उत्पन्न होते हैं और पनपते हैं।
के बदले बाह्य प्रसाधनों से सजाने की धुन में सैंकड़ों पशुओं की 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के मूल में इसी अहिंसा के सिद्धान्त की
निर्मम हत्यायें की गई। महँगे सेन्ट, लिपिस्टिक, स्प्रे आदि में इन्हीं मुख्यता है। जैनदर्शन की नींव या रीढ़ यह अहिंसा है। हिंसा की
पशुओं का रक्त झलकता है। जिस क्रूरता से उनकी हत्या की जाती भावना कभी परस्पर उपकार की भावना को दृढ़ीभूत नहीं कर
है उसका वर्णन भी पढ़ने से आँखें छल-छला जाती हैं। चमड़े की सकती। यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा की महत्ता का स्वीकार किया
मँहगी बनावट में जीवित पशुओं की चमड़ी उधेड़ दी जाती है। इस पर जैनधर्म ने उसे मूलतत्त्व या आधार के रूप में स्वीकार किया।
प्रकार जीभ की लोलुपता, शिकार का शौक और फैशन ने क्रूर यहाँ चूंकि हम पर्यावरण के प्ररिप्रेक्ष्य में बात कर रहे हैं अतः द्रव्य
हत्याओं के लिए मनुष्य को प्रेरित किया। इससे पशुओं की संख्या हिंसा की ही विशेष चर्चा करेंगे।
घटने लगी। अरे ! कुछ पशुओं की तो नस्लें ही अदृश्य होती जा मूलतः मानव शाकहारी प्राणी है। उसके शरीर, दाँत आदि की । रही हैं। इससे प्रकृति का संतुलन डगमगाया है और पर्यावरण की संरचना भी तदनुकूल है। कुदरत ने प्रत्येक जीव का भोजन निश्चित । समस्या गंभीर हई है।
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