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अंत में बताया गया है कि पात्र-अपात्र के विषय में तटस्थ दृष्टि से, साथ ही मानवीय भावना के साथ विचार करना चाहिए। हृदय और बुद्धि, शास्त्र और व्यवहार दोनों तुला पर तौलकर, पात्र विवेक करके दान में प्रवृत्त होना चाहिए।
दान और भिक्षा दोनों को एक तुला पर नहीं रखा जा सकता। इस कथन की पुष्टि भिक्षा के अर्थ से सहज ही हो सकती है। "समाज की अधिक से अधिक सेवा करके समाज से केवल शरीर यात्रा चलाने के लिए कम से कम लेना और वह भी लाचारीवश तथा उपकृत भाव से दान के अर्थ में और भिक्षा के अर्थ में अन्तर है। इसी से दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। दान और भिक्षा शीर्षकान्तर्गत इसी विषय को स्पष्ट किया गया है। भिक्षावृत्ति को उचित नहीं माना गया है।
अंतिम प्रवचन विविध कसौटियाँ है। इसमें पात्र की और दाता की परीक्षा, दान के पात्र मिलने दुर्लभ हैं, याचक और पात्र, सुधाजीवी दानपात्र का स्वरूप और दान-दर्शन का निष्कर्ष शीर्षकों के अन्तर्गत विवेच्य विषय का प्रतिपादन किया गया है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सम्पूर्ण प्रवचन संग्रह की विषय वस्तु पुस्तक के नाम के अनुरूप दान पर ही केन्द्रित है और विषय प्रतिपादन विस्तार से तथा सटीक किया गया है। प्रबंधन में शास्त्रोक्त उद्धरण तो दिए ही गए हैं कथा दृष्टांतों से उन्हें सरल एवं सरस बनाकर श्रोताओं / पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। दान जैसे विषय पर अपने आपमें यह एक परिपूर्ण पुस्तक है। प्रवचनों को प्रवचनाकार देकर और फिर उन्हें निबन्धों का स्वरूप प्रदान कर स्वयं प्रवचनकार उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ने और संपादकद्वय आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. एवं समर्थ साहित्यकार श्री श्रीचंद जी सुराणा ने बहुत बड़ा उपकार किया है। यदि इस प्रवचन संग्रह के अध्ययन करने के पश्चात् पाठकों के हृदय में दान देने की भावना जागृत होती है तो यह प्रवचनकार और संपादकद्वय के परिश्रम की सफलता कही जावेगी।
चूँकि इस पुस्तक को केवल जैनधर्म तक ही सीमित नहीं रखा गया है। इसमें जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों परम्पराओं के साहित्य का उपयोग हुआ है, इसलिए यह पुस्तक सभी के लिए उपयोगी बन गई है।
दान ही धन का प्रथम और उत्तम उपयोग है।
मनुष्य ज्ञानदान से ज्ञानी, अभयदान से निर्भय, औषध दान से निरोगी और आहार दान से हमेशा सुखी रहता है।
गृहस्थ जीवन का शृङ्गार दान ही है।
जैसे नित्य दुहने पर गाय का दूध कम नहीं होता, उसी प्रकार दान देने से भी धन नहीं घटता ।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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