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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साहित्य का प्रचार-प्रसार होना चाहिए तथा बालकों में अच्छे संस्कार उत्पन्न हो सके, इस विषय पर भी चर्चा हुई थी। आपश्री की इस उदारता और अपनत्व से परिपूर्ण व्यवहार से मैं अभिभूत हो उठा था। चलते-चलते जब मैंने कहा कि आपश्री का काफी समय मैंने ले लिया है। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। तब आपश्री ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। अच्छे कार्य करो, समय की चिन्ता नहीं। मैं उन्हें वंदन कर प्रसन्न हृदय से वहाँ से उज्जैन के लिए रवाना हो
गया।
दूसरा प्रसंग पीपाड़ शहर का है। आपश्री का वर्षावास सन् १९९१ का पीपाड़ शहर में था। मुझे जोधपुर जाना था, सोचा पहले पीपाड़ शहर चलकर पू. उपाध्यायश्री जी म. पू. उपाचार्य श्री जी म. आदि मुनि भगवंतों के दर्शन कर फिर जोधपुर पहुँचा जाय। अपने इन विचारों को क्रियान्वित करने के लिए मैं ब्यावर से बिलाड़ा और वहीं से पीपाड़ शहर पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर सभी मुनि भगवंतों के दर्शन किये चर्चा में उपाचार्यश्री ने कहा कि प्रतिक्रमण के पश्चात् मिलना। चूँकि मुझे प्रातः जल्दी ही पीपाड़ शहर से जोधपुर के लिए रवाना होना था, इसलिये मैं पीपाड़ शहर में जितनी देर ठहरा, समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करने में ही रहा। प्रतिक्रमण समाप्ति के पश्चात् मैं उपाचार्यश्री की सेवा में जाने के लिए स्थानक में गया। स्थानक में जिस कक्ष में उपाचार्यश्री विराजमान थे उसके ठीक पहले वाले कक्ष में उपाध्यायश्री जी म. विराजमान थे। रात्रि का लगभग साढ़े आठ, पौने नौ बजे का समय रहा होगा। मैंने पहले कक्ष में प्रवेश किया। बाहर से हलका हलका प्रकाश कक्ष में आ रहा था। मैंने कक्ष में प्रवेश करते ही उपाध्यायश्री को वंदन किया। मुझे पता नहीं कि उन्होंने मुझे देखा या नहीं किन्तु एक कदम ही मैंने बढ़ाया होगा कि उनकी आवाज सुनाई दी- "कौन, गौड़ जी हैं क्या ?"
"जी हाँ, बाबजी मैं ही हूँ।" आगे बढ़ते मेरे कदम सहसा रुक गए ये पुनः बोले- आओ इधर आओ।
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मैं उनके सम्मुख पहुँचा और सामने ही बैठ गया। उन्होंने बड़े ही अपनत्व भरे शब्दों में कुशल-मंगल पूछा और मेरी पीठ पर अपना हाथ रख दिया। लगभग तीन-चार मिनट तक उनका हाथ मेरी पीठ पर रहा। मुझे लगा उस समय वे मन ही मन कुछ मंत्रोच्चार भी कर रहे थे। फिर मेरी पीठ पर हाथ फिराकर सिर पर हाथ रखा और सिर पर हाथ फेर कर बोले-“जाओ, अब जाओ।"
इस प्रकार पाँच-छः मिनट तक मैं उनके सम्मुख अविचलित मौन बैठा रहा। उस समय की मेरी अनुभूति गूंगे के गुड़ खाने के समान है। उस अनुभूति का मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता।
आज जबकि पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. हमारे बीच नहीं है, उनका स्नेह से आपूरित अपनत्व भरा व्यवहार रह रहकर याद आता है। कभी-कभी एकांत में बैठा मैं विचारमग्न
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रहता हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी पीठ पर उनका हाथ है और मैं भाव-विभोर हो उठता हूँ। अब तो उनकी स्मृति ही हमारा सम्बल है। वे भौतिक रूप से ही हमारे बीच न हों किन्तु वैचारिक रूप से वे आज भी हमारे बीच हैं।
प्रसन्नता का विषय है कि उनकी स्मृति में एक स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है विश्वास है यह स्मृति ग्रन्थ एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्रकाशित होगा और उपाध्यायश्री के सांगोपांग व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रस्तुत करने में सार्थक सिद्ध होगा।
चमत्कारी मंगल पाठ था
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-जयवन्तमल सखलेचा
महान संतों के जीवन की कई ऐसी घटनाएँ होती हैं जो मनुष्य के जीवन की दिशा बदल देती हैं। मेरे जीवन में भी कुछ ऐसे प्रसंग आए जो मेरी स्मृति पर अमिट छाप छोड़ गए।
अध्यात्मयोगी, परम पूज्य उपाध्याय १००८ श्री पुष्कर मुनिजी महाराज साहब का सन् १९७३ का चातुर्मास था। गुरुदेव की हमारे पिताजी श्री मंगलचन्द जी सखलेचा पर विशेष अनुकंपा एवं आशीर्वाद था। अगस्त सन् १९७३ की बात है मेरे ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार जिसकी उम्र करीब १३ वर्ष की थी, अचानक तबियत खराब हो गई, नाक से खून आने लगा, बुखार भी हो गया, डाक्टरों को दिखलाया एवं कई प्रकार की दवाइयाँ दीं परन्तु स्थिति काबू में नहीं आई। २-३ दिन में तबियत ज्यादा बिगड़ गई, नाक से खून आना बंद नहीं हुआ एवं लड़का सन्निपात की स्थिति में आ गया। मेरे पिताजी गुरुदेव के पास गए एवं उनसे कहा कि मेरे पौत्र की तबियत ज्यादा खराब हो रही है कृपया उसे मंगल पाठ देने की कृपा करें। यह सुनते ही गुरुदेव हमारे घर पधारे एवं मेरे पुत्र की हालत देखकर कहा कि बैठने के लिए एक लकड़ी का स्टूल दो मैं यहीं बैठकर ध्यान करूँगा ये स्टूल पर बैठकर ध्यान में लीन हो गए, कुछ समय पश्चात् ध्यान से उठकर मेरे पुत्र को मंगल पाठ सुनाया तथा बतलाया कि यह बालक मूठ की चपेट में आ गया था इसलिए खून आना चालू हो गया। अब ठीक हो जावेगा। कुछ ही समय में नाक से खून आना बंद हो गया तथा बुखार भी उतरने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गया। यह मेरे जीवन की ऐसी घटना है जिसे मैं कभी भी नहीं भूल सकता तथा गुरुदेव का जो उपकार मेरे पर हुआ वह मेरे मानस पटल पर सदैव अंकित रहेगा।
पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी की एक और घटना मेरे स्मृति पटल पर अंकित है। आपका चातुर्मास समाप्त होने पर इन्दौर से जावद, निम्बाहेड़ा होते हुए चित्तौड़ में पदार्पण हुआ में भी किसी कार्यवश अपने रिश्तेदार एवं उनकी पुत्री के साथ चित्तौड़ गया।
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