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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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आदर्श है। इसका कोई मोलतोल नहीं हो सकता पर यह भी संध्या, दिशा में हो रही है। व्रत चाहे महान् हो, चाहे अणु-व्रत ही होता है नमाज आदि की तरह यांत्रिक होती जा रही है। संध्या में बोला । पर कितने उसको निभा पाते हैं ? घड़ी के एक समय चाबी लगते जाता है-यत् रात्र्या पापकर्मगि मनसा वाचा हस्ताभ्यां पम्यांत, । रहने से ही इच्छाशक्ति बढ़ जाती है पर यह छोटी सी बात भी निभ उदरेण, शिश्ना आदि। पाप किये जाते हैं और यह सब पाठ भी। कहाँ पाती है? धर्म के नाम पर संघर्ष क्यों होते रहते हैं ? धार्मिक धर्म 'केक' नहीं, रोटी है। जीवन धार्मिक नहीं हुआ तो पूजा-पाठ, कट्टरता क्यों बढ़ रही है? असहिष्णुता क्यों पनप रही है ? मिलावट जप-तप किये जाइए, इससे किसका भला होगा। कबीर ने कहा था का क्यों बोलवाला है? एक जैन सभा में मैंने कहा था कि तेल, घी 'जब मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह मन-कपि ही तो उछल कूद की ऐसी दो चार दुकानें यहाँ खुल जायँ तो चातुर्मास की सार्थकता मचाता है। देश में अनेक धर्म हैं। सभी अच्छी बात करते बताते हैं
समझें। खरी बात कौन सुन सकता है ? रोष व्याप्त हो गया। पर उसका असर क्यों नहीं होता? लोग एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल क्यों देते हैं ? प्रवचन के समय श्रोता का मन कहाँ
सूक्तियों में सार बहुत है पर बिना समझे सब निस्सार है। कहाँ भटकता है या थोड़ी देर शरीर जैसे थकान मिटाने के लिए
अद्वैतवाद कहता है-ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, पर संसार मिथ्या कैसे ऊँघ लेता है। धर्म का राजनीतिकरण क्यों हो रहा है? धार्मिकों में
है? सब लोग इसी दुनिया में रहते हैं या नहीं? इसका अर्थ यही है शिथिलता क्यों फैल रही है?
कि मन जुड़ा है तो संसार है। अमन मन के लिए कोई संसार नहीं
है। दूसरा अर्थ यह है कि यहाँ कुछ स्थायी नहीं है। सब मकान, जायदाद, सुविधाओं में आगे बढ़ने की दौड़धूप लगी
परिवर्तनशील है। स्त्री, पुरुष, अन्य वस्तुएँ सब एक जैसे कभी नहीं हुई है। धर्मप्रवर्तकों की शिक्षा का अनुसरण कौन कर रहा है?
रह सकते। मरणधर्मा मनुष्य को सब कुछ यहाँ छोड़ कर जाना ईसा, मोहम्मद साहब, महावीर, गौतम, सिख गुरुओं आदि के
पड़ेगा। अनित्य, अशरणादि भावनाएँ यही बताती हैं कि दृष्टि बाहर उपदेशों का व्यवहार में कितना प्रचार-प्रसार है? सच्चरित्रता,
इतनी नहीं जितनी अंदर रहनी चाहिए। आत्मोद्धार इष्ट है, ईमानदारी, हृदय-शुद्धि आदि अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। गांधी की
शरीरोद्धार की कोई बात नहीं करता। शरीर साधन है, आत्मा समाधि पर पुष्प चढ़ाने सत्ताधारी पहुँच जाएँगे, हाथ भी जोड़ लेंगे
साध्य है। शरीर को साध्य समझने का सर्वत्र प्रचलन हो गया है। पर व्यवहार उलटा। कोई अधार्मिक न कह दे इसलिए धर्म के नाम पर भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। इच्छा-पूर्ति हो गई तो सवा
शरीर और आत्मा पृथक् हैं, यही समझ कर तदनुसार आचरण या एक सौ एक रुपयों का प्रसाद चढ़ा दो। श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को
करना इष्ट है। राग द्वेष से ऊपर उठे बिना निस्तार नहीं। द्वेष प्रकट याद कौन करता है। ध्यान रहता है मिष्ठान्न पर।
शत्रु है पर राग प्रच्छन्न है। यह जान अनजान में मार करता ही
रहता है। बुरी बातें मानी जाती हैं, अच्छी बातों को अव्यावहारिक धर्म निष्प्राण, निस्तेज क्यों हो रहा है? उपदेशकों के प्रति
| समझ छोड़ दिया जाता है। मान-सम्मान में कमी क्यों आ रही है। धर्म भी जैसे एक पेशा बन गया है। जमाना था जब खादी भण्डार में काम करने वाला अपने
श्री पुष्कर मुनि को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि उनकी आपको अन्य कार्यकर्ताओं से ऊँचा समझता था। धर्म में ऊँच-नीच
कतिपय महत्वपूर्ण सूक्तियाँ को हृदयंगम किया जाय। श्रमण, श्रमणी, की बात होनी ही नहीं चाहिए। धर्म में जाति आदि का प्रतिबंध
श्रावक, श्राविका चारों मिलकर संघ बनाते हैं। एक-दूसरे के नहीं, फिर भी कितने धार्मिक गरीबों का दुःख-दर्द सुनते हैं ? वहाँ
निःश्रेयस् के लिए प्रयत्नशील होने पर ही संघ का कल्याण है। यह भी धनाढ्यों की भीड़ लगी रहती है, चाहे तिरुपति का मन्दिर हो, होना चाहिए पारस्परिक निःश्रेयस् के लिए, मात्र अभ्युदय के लिए चाहे नाथद्वारा का। चरित्र कैसा भी हो, समाज में प्रतिष्ठा बनी । नहीं, क्योंकि अभ्युदय का संबंध शरीर के है जबकि निःश्रेयस् का रहनी चाहिए। धन और सत्ता-दो ही इसके उपाय हैं। चेष्टा उसी । आत्मा से। आत्मस्थ होना ही सूक्तियों का हार्द है।
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कैसी भी परिस्थिति-स्थिति हो, धर्म से बड़ा सहारा कोई नहीं है। जो सब सहारे छोड़कर आश्रय और आसक्ति-दोनी की दृष्टि से धर्म की शरण में जाते हैं उनको इस जगत में भी सुख-शान्ति मिलती है और परलोक में भी देव पद या मोक्ष पाते हैं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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