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इतिहास की अमर बेल
विविध विशेषताओं के संगम
आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी महाराज
दीप्तिमान निर्मल गेहुँआ वर्ण, दार्शनिक मुखमण्डल पर चमकती दमकती हुई निश्छल स्मितरेखा, उत्फुल्ल नील कमल के समान मुस्कराती हुई स्नेह- स्निग्ध निर्मल आँखें स्वर्ण-पत्र के समान दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट, कर्मयोग की प्रतिमूर्ति के सदृश सुगठित शरीर, यह था हमारे परमाराध्य आचार्य प्रवर का बाह्य व्यक्तित्व जिसे लोग राष्ट्र संत आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज के नाम से जानते हैं, पहचानते आज भी श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
वे बाहर से जितने सुन्दर थे नयनाभिराम थे उससे भी अधिक थे अन्दर से मनोभिराम। उनकी मञ्जुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारकता की भव्य आभा झलकती थी और उनकी उदार आँखों के भीतर से बालक के समान सरल सहज स्नेह सुधा छलकती । जब भी देखा, वार्तालाप में सरस शालीनता के दर्शन होते थे। हृदय की उच्छल संवेदनशीलता एवं उदात्त उदारता दर्शक के मन और मस्तिष्क को एक साथ प्रभावित करती थी और कुछ क्षणों में ही जीवन की महान् दूरी को समाप्त कर सहज स्नेह सूत्र में बांध देती थी। जीवन-रेखा
आपश्री का जन्म वि. सं. १९५७ श्रावण शुक्ला १, तननुसार २६ जुलाई, सन् १९०० के शुभ दिन अहमदनगर के निकटवर्ती चिंचोडी ग्राम में हुआ आपके पिताजी देवीचन्द जी एवं माताश्री हुलासबाई बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। तेरह वर्ष की सुकुमार वय में आपने पूज्य श्री रत्न ऋषिजी महाराज के चरणों में वि. सं. १९७० मार्गशीर्ष शुक्ला ९ रविवार को मिरीगांव में भागवती दीक्षा ग्रहण की।
आपश्री वाल्यकाल से ही बहुत प्रतिभाशाली, मेधावी, अध्ययनरुचि वाले तथा शांत प्रकृति के थे।
वि. सं. १९९९ माघ कृष्णा ६ को पाथर्डी में आप ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तथा वि. सं. २००९ के ऐतिहासिक वर्ष में आपश्री श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानमंत्री एवं वि. सं. २०१९ माघकृष्णा ९ (३० जनवरी १९६१) को श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य बने तथा वि. सं. २०४९ (२८ मार्च १९९२) को अहमद नगर में स्वर्गवास
हुआ।
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
स्वर्णगरुड़
आचार्य प्रवर के सम्बन्ध में लिखने की भावना उमड़ी तो ऐसा अनुभव होने लगा कि कोई विहग शावक स्वर्णगरुड़ के विषय में अपना अनुभव व्यक्त करने को लालायति हुआ हो। आचार्य श्री विश्वरूपी आकाश के स्वर्णगरुड़ थे। उनका निर्भीक साहस, उनकी पारदर्शक दृष्टि उनका ज्वलंत त्याग आदि ऐसे गुण हैं जिनके कारण उनका समाज पर अद्भुत प्रभाव रहा और प्रतिष्ठा का उच्चतम सम्मान प्राप्त हुआ।
विशेषताओं का संगम
आचार्य प्रवर का जीवन अनेक विशेषताओं का संगम स्थल रहा। उनका आकर्षक व्यक्तित्व असाधारण था। उनके कमनीय कर्तृत्व ने उनके व्यक्तित्व को निखारा साधना के प्रथम चरण में ही उनकी प्रगति का अध्याय प्रारम्भ हुआ। प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनकी प्रगति में बाधा बनने का प्रयास किया किन्तु गंगा के निर्मल प्रवाह की तरह वे निर्बाध गति से आगे बढ़ते गये। वट वृक्ष की भाँति उनका व्यक्तित्व सदा विस्तार पाता गया। उनकी वरिष्ठ योग्यता का ही यह ज्वलन्त प्रमाण है कि वे सर्वप्रथम ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य बने फिर पाँच सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य बने, और फिर श्रमण संघ के प्रधान मन्त्री, उपाध्याय एवं आचार्य बने । ओजस्वी आचार्य
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आप श्रमण संघ के एक ओजस्वी और तेजस्वी आचार्य थे। आपका जीवन एक सच्चे सन्त का जीवन था। जिस किसी ने आपको निकट से देखा, उसके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा आपश्री की प्रगाढ़ विद्वत्ता, अदम्य साहस, उत्तम कर्तव्यनिष्ठा, अद्वितीय अद्भुत त्याग, निस्सीम कर्मठता, स्नेह और संगठन की निर्मल भावना को देखकर कौन मुग्ध नहीं हुआ ? प्रलोभनों ने आपको कभी भी विचलित नहीं किया। सत्ता दासी होकर आई। अधिकार प्राप्त करके भी आपश्री उसी प्रकार निर्लेप रहे जैसे जल में कमल ।
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आत्मविश्वास के धनी
आत्मविश्वास अचिन्त्य शक्ति का अक्षय कोष है। उसमें अमंगल को मंगल के रूप में परिणत कर देने की अद्भुत क्षमता है। महान् वह बनता है जो आत्मविश्वास का धनी होता है श्रद्धेय आचार्य श्री का आत्मविश्वास गजब का था। शरीर अनेक व्याधियों से ग्रसित
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