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था। तब चिकित्सकों की राय थी आप विहार न करें; विशेष शारीरिक श्रम न करें, पर आपश्री ने अपने आत्मविश्वास के बल पर जन-जन के मन में त्याग-निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा और शुद्ध जैनत्व का सन्देश देने के लिए हजारों मील की यात्रा की। चिकित्सक आपश्री के आत्म-विश्वास को देखकर चकित थे। आपकी सहिष्णुता बेजोड़ थी। दीन मनोभावों को आपने कभी आदर नहीं दिया।
कठोरता और कोमलता का समन्वय
जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए कठोरता और कोमलता ये दोनों तत्त्व अपेक्षित हैं, अनिवार्य हैं। केवल कठोरता विकास के मार्ग में बाधक है और केवल कोमलता भी उसका सम्बल नहीं हो सकती, मात्रा के औचित्य से ही दोनों की फलवत्ता है।
आचार्यश्री के जीवन की आलोचना करते हुए कुछ आलोचक कहा करते थे कि आचार्यश्री आवश्यकता से अधिक कोमल थे। वे किसी पर भी अनुशासन नहीं कर सकते, पर सत्य तथ्य यह है कि उनके जीवन में कठोरता और कोमलता का मथुर समन्वय था। उनका मानस जहां अनुशासन के क्षेत्र में वज्र से भी अधिक कठोर थी श्रद्धान्वित घेता के लिए कुसुम से भी अधिक सुकुमार था।
कोमलता को जो लोग उनका दूषण मानते हैं वे भूल-भरे हैं। कोमलता उनका दूषण नहीं अपितु भूषण था, वहां!
वात्सल्य और अनुशासन
आचार्य संघ के शास्ता होते हैं। प्रशासन उनका कार्य है। हजारों श्रमण और श्रमणियों को तथा लाखों श्रावक और श्राविकाओं को उन्हें मार्गदर्शन देना होता है। उनका प्रशासक भाव जिस समय वात्सल्य से भावित होकर संघ के सदस्यों को अपने कर्तव्यों की ओर अग्रसर होने के लिए उत्प्रेरित करता है, उस समय अनुशासन, अनुशासन न रहकर आत्मधर्म बन जाता है। उसमें सहजता और आत्मीयता आ जाती है। वह अनुशासन बाहर से थोपा हुआ नहीं, अपितु आत्मगत होता है। श्रद्धेय आचार्यश्री इस प्रकार के प्रयोग सदैव करते रहते थे। उन्होंने संघीय अनुशासन को | हमेशा प्रधानता दी। अनुशासन का उल्लंघन करना उन्हें बहुत ही अखरता और अनुशासनात्मक कार्यवाही भी करते। उसके पश्चात् उनका हृदय वात्सल्य से छलछलाने लगता, तब उनका कठोर अनुशासन भी किसी को कठोर प्रतीत नहीं होता।
विवादों से दूर
आचार्य श्री को वाद-विवाद पसन्द नहीं था। उनका यह स्पष्ट अभिमत रहा कि बाद-विवाद से तत्त्वबोध नहीं अपितु कषाय की अभिवृद्धि होती है। यह शक्ति का अपव्यय है। निरर्थक शक्ति का दुरुपयोग करना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे स्मरण है कि अजमेर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
शिखर सम्मेलन के अवसर पर एक व्यक्ति आपश्री के पास आया और बोला- मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
आचार्यश्री ने मुस्कराते हुए पूछा-किसलिए ?
उसने कहा- मैं आपको पराजित कर यह उद्घोषणा करूँगा कि श्रमण संघ के आचार्य मेरे जैसे से हार गये।
आचार्यश्री ने उसी प्रकार मुस्कराते हुए पूछा-उससे तुम्हें क्या लाभ होगा ?
उसने कहा- इससे मेरा सम्पूर्ण समाज में यश फैलेगा। आचार्यश्री ने कहा तो फिर तुम यह मान लो मैं हारा और तुम जीते।
आगन्तुक आचार्यश्री के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि आपश्री ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही मुझे पराजित कर दिया। जीवन और शिक्षा
जीवन का शिक्षा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन शरीर है तो शिक्षा उसका प्राण है। शिक्षा के अभाव में जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है। शिक्षा से ही जीवन में अभिनव चमक और दमक आती है। आचार्यश्री समय-समय पर शिक्षा पर बल देते रहे, आपश्री ने प्रबल प्रेरणा देकर शताधिक स्थानों पर पाठशालाएँ और स्कूल व छात्रावास खुलवाये। श्री तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड आपश्री की ही कल्पना का मूर्त रूप है, जिसमें भारत के एक छोर से द्वितीय छोर तक हजारों विद्यार्थी, सन्त व सतीगण परीक्षा देते हैं, प्रवेशिका से लेकर आचार्य तक अध्ययन होता है।
आपश्री का अभिमत था कि जीवन को संस्कारी, विचारी और आचारी बनाने के लिए शिक्षा से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। आज स्वतन्त्र भारत के समक्ष दो समस्याएँ हैं- शिक्षा और रक्षा। रक्षा की समस्या का समाधान तो दस-बीस लाख सैनिक कर सकते हैं पर अज्ञानान्धकार को मिटाने के लिए सभी को शिक्षित बनना आवश्यक है। शिक्षा केवल व्यावहारिक ही नहीं अपितु आध्यात्मिक भी होनी चाहिए। सदाचार और निर्मल जीवन ही सच्ची शिक्षा का आधार है।
प्राकृत भाषा के प्रेमी
आज पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में मानव अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा को भूलता चला जा रहा है। यही कारण है कि वह प्राचीन महापुरुषों की मौलिक विचार-निधि से वंचित हो रहा है. और असहाय की भाँति इधर-उधर भटक रहा है। आपश्री का मत था कि संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से अपने असीम सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है। साहित्य सामाजिक भावना, क्रान्तिकारी विचार एवं जीवन के विभिन्न उत्थान और पतन की
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