________________
oss-0
000000000300-400.000000
90066637a300500034 808092e6000%aloParb0-0000000000
a000
O
DIDIOD.
PPP
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ विचार कीजिए धर्म वस्तुतः एक शाश्वत द्रव्य है। इसके उदय । भोगों के प्रति विरति भावना उद्भूत होती है और संयम के संस्कार होने से प्राणी की दशा और दिशा में आमूलचूल परिवर्तन होने । परिपुष्ट होते हैं। लगता है। धर्म चक्र में प्रवृत्त होने पर प्राणी स्व और पर-पदार्थ का
तीर्थ वंदना, गुरु वंदना और शास्त्र वंदना अर्थात् स्वाध्याय स्पष्ट अन्तर अनुभव करने लगता है। उसे संसार के प्रत्येक पदार्थ
| सातत्य से उसका अन्तरंग धर्ममय होने लगता है। ऐसी स्थिति में की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। प्राणी के सोच और समझ में युगान्तर
उसकी इन्द्रियाँ भोग के लिए बगावत करना छोड़ देती हैं। वे उत्पन्न होने लगता है।
वस्तुतः योग के प्रयोग की पक्षधर हो जाती हैं। _धर्म चक्र में प्रवृत्त प्राणी की दृष्टि में प्रत्येक पदार्थ का अपना
धर्मचक्र से प्राणी की चर्या षट् आवश्यक और पंच समिति HD स्व भाव होता है। वह स्वभाव ही वस्तुतः उस पदार्थ का धर्म
सावधानी से वस्तुतः मूर्छा मुक्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में कहलाता है। प्रत्येक प्राणी अपने कर्म का स्वयं ही कर्ता होता है।
आत्म-गुणों के प्रति वंदना करने के शुभभाव उसमें रात-दिन जाग्रत अर्थात् उसकी मान्यता मुखर हो उठती है कि उपादान एवं निमित्त
होते रहते हैं। ऐसे प्राणी की चर्या पंच परमेष्ठी की वंदना में प्रायः के सहयोग से ही कर्म का सम्पादन होता है। यह भी स्पष्ट है कि
लीन हो जाती है। अन्ततः वह श्रावक से श्रमणचर्या में दीक्षित अपने कर्मानुसार ही प्राणी को निमित्त जुटा करते हैं। उसकी दृष्टि
होकर अनगार की भूमिका का निर्वाह करता है। प्रतिमाएँ और में निमित्त का जुटना पर-पदार्थ की कृपा का परिणाम नहीं है। कर्म
गुणस्थानों को अपनी चर्या में चरितार्थ करता हुआ जैसे-जैसे वह बँधते हैं और जब उनका परिणाम उदय में आता है तब शुभ
अन्तरात्मा ऊर्ध्वमुखी होता जाता है, वैसे-वैसे मानो वह परमात्मा के अथवा अशुभ परिणाम वह बड़ी सावधानीपूर्वक स्वीकार करता है।
द्वार पर दस्तक देने लगता है। उसके उत्तरोत्तर विकास-चरण उस शान्ति पूर्वक भोगता है। शुभ अथवा अशुभ परिणाम को वह किसी ।
सीमा को लाँघ जाते हैं जहाँ पर शुद्धोपयोग पूर्वक केवल ज्ञान को दूसरे के मत्थे नहीं मड़ा करता है। इतना बोध और विवेक धर्मचक्र
जगाता है। ज्ञान जब केवल ज्ञान में परिणत हो जाता है तब 5050 में संश्लिष्ट प्राणी की अपनी विशेषता होती है। धर्मचक्र में सक्रिय
धर्मचक्र की भूमिका प्रायः समाप्त होकर सिद्ध चक्र की अवस्था प्राणी की आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है।
प्रारम्भ हो जाती है। अन्तरात्मा मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व के साथ धर्मचक्र को
सिद्ध चक्र का प्रारम्भ होते ही प्राणी अपने घातिया कर्मों का BAD बड़ी सावधानीपूर्वक समझता और सोचता है कि कर्म-बन्ध से किस
समूल नाश कर लेता है। घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर ही PROB प्रकार मुक्त हुआ जा सकता है। कर्म-बन्ध की प्रकृति के अनुसार
उसमें केवल ज्ञान का उदय होता है। इसके उपरान्त अघातिया कर्म Focoo वह संयम और तपश्चरण में प्रवृत्त होता है। अपने भीतर संयम को
भी क्षय होने लगते हैं फिर भी यदि आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य a जगाता है और कर्म की निर्जरा हेतु वह अपने पूरे पुरुषार्थ का
| अघातिया क्षय होने से शेष रह जाते हैं तो साधक समुद्घात करके उपयोग करता है। यह उपयोग वस्तुतः उसका शुभ उपयोग
उसे भी क्षय कर लेता है और अन्ततः वह सिद्धत्व प्राप्त कर लेता कहलाता है।
है। सिद्ध चक्र तक पहुँचने पर साधक कर्म चक्र और धर्म चक्र से शुभोपयोग की स्थिति में प्राणी धर्म को अपनी चर्या में | मुक्त होता हुआ कर्म-बन्ध से वस्तुतः निर्बन्ध हो जाता है। इस चरितार्थ करता है। सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र 1 प्रकार वह जन्म-मरण के दारुण दुःखों से सर्वदा के लिए छुटकारा पूर्वक वह सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु में श्रद्धान जाग्रत प्राप्त कर लेता है। करता है। इसी श्रेद्धान से अनुप्राणित चर्या-मोक्ष-मार्ग पर चलने का
पता : भाव बनाती है। ऐसी स्थिति में प्राणी की आत्मा वस्तुतः अन्तरात्मा मंगल कलश
का रूप धारण कर लेती है। उसकी जागतिक चर्या वस्तुतः ३९४, सर्वोदयनगर BED20व्रत-विधान हो जाती है। व्रत-साधना से उसकी चित्तवृत्ति में इन्द्रिय आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१
20.50
* ऐसा कोई भी कार्य जिसके साथ पीड़ा और हिंसा जुड़ी है धर्म की संज्ञा कैसे पा सकता है? * धर्म से वर्तमान और भविष्य दोनों सुधरते हैं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
09.00AUNCADCASXC
opohto.00000000998A RPOS Raighali 8.0000000000000004
0.0000000 000002
5:00.00000.00AssrcRIPTION DOHORQ00000000DADDED