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नगरों के नाम पर द्वयर्थक-श्लेष प्रयोग
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सूरत सो शहर देखी, रतलाम भूल जाना जगन्नाथपुरी पाय, कुंबलगढ़ गाइये
वक्तगढ़ वांको घणी, रसालपुर बांधे क्यों
पाली छः काय सिद्धा, रक्षापुर जाइये खट कालो देख मना, नागपुर भूल मति सिद्ध पुर जाना जब, कर्मपुर ढाइये
कहे पुष्कर मुनि, नाम ही गांव सारे देखकर आत्मा में, ज्ञान को रमाइये
सागर में भम रह्यो, मदराश वास कर कलकटा अजमेरा दिल्ली में जचाइये।
पूना से ही मिला तुझ, सहायपुर कुटुम्ब का
धर्मपुरी छोड़, सारंगपुर न रीझाइये दौ-डेरलपुरी लिए, कानपुर फस रह्यो मालेगाँव पाय पुष्कर, धूले न भूलाइये
उदयपुर कर्म हुए, जोधपुर जी तलिये जयपुर होय सिद्धे, सिद्ध पुर जाइये।
Patna
महावीर षट्कम्
महावीर षट्कम्
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मा (संस्कृत) मजाक नमामि युगनायकं, जिनवरैः सदोपसितम्, स एव पृथिवीतले, जिनवरेषु तीर्थान्तिमः। अनेन मुनिना स्वयं, जिनमतं पुनर्बोधितम् कलौ मुनिषु केवली, प्रथम एव पूज्योऽभवत्।।१।। अवैदिक जनैरहो! कलुषितैश्च हिंसामयः, तदाऽस्य समये महान् अधमधर्म इच्छापरः। अयुक्त विधिना क्रतुः, कथित हेतुर्मिमिथ्यात्मकः, दयालुषु महोत्तमै, जिनवरैय॑षेधि स्वयम् ॥२॥ यशस्वि पुरुषो मुनिः, करुणया जनान् बोधयन्, जगाम सततं भ्रमन्, क्रतुमिमं कुर्वतो बुधान्। अपृच्छदयमेव तान्, कथमिमे जीविनस्तदा, क्रती विधिवशादिमे, बलिहितायैव ते, समे॥३॥ निशम्य वचनं प्रभुः, करुणयाऽऽप्लावितोऽभवत्, न कोऽपि परमो गुणी, य इह वेदं वदेत्स्वयम्। न चाऽस्ति भवतां गणे, वदति वागुत्तरं स यः, पुनर्न, बत योग्यता, निरपवादं वदेदसौ॥४॥ प्रभोः समुचितं वचो, सदसि साभिमानः सुधीः, निशम्य हसति स्वयं, वदतु कोऽपि चेन्द्रोऽस्म्यहम्। वदेयमहमेव तं, बलिमिमं तु वैधं विधिम्, प्रयाति सविधे मुनेः पुनरयं सलज्जोऽभवत्॥५॥ स्मरामि मुनिमन्तिमं, तममिह केवलज्ञं गुरुम्, वदन्ति भुवनेऽप्यतः कुसुमवाणधीरं प्रभुम्। जनास्तु सकला :कली, शरणगामिजैना इमे, भवन्ति कथयाम्यतो, नमति पुष्करो गीतमम्॥६॥
(हिन्दी-भावार्थ) जिनवर जिनकी सदा उपासना करते हैं, जो युग के नेता रहे। ये ही सभी तीर्थंकर भगवानों में अन्तिम हैं। इन्होंने भूले हुए जैनधर्म को सुझाया। कलियुग के सर्वप्रथम केवली होकर पूज्य हुए।।१॥
अवैदिक जनता ने मर्जी मुताबिक हिंसाप्रधान अधर्म चलाया। बनावटी युक्तियों के यज्ञ होने लगे। ऐसे समय दयालु महावीर भगवान ने ऐसे यज्ञों का निषेध किया। वस्तुसत्य यह है कि स्वयं महावीर ने कभी वेद को असत्य अथवा अयथार्थ नहीं कहा ॥२॥
परम यशस्वी भगवान् महावीर ने निरन्तर घूमकर मनुष्यों को समझाते हुए कहा कि ये यज्ञादि में इन जानवरों की हत्या करना अवैदिक और मिथ्या है॥३॥
पशुओं की बात को ज्ञात कर केवली भगवान महावीर स्वामी बड़े व्यथित हुए और दयाविभोर हो उठे और कहने लगे कि पहले तो वेद के अर्थ को कोई जानता नहीं। आपमें से भी कोई ऐसा भी नहीं है कि जो वेद को जानता हो और उचित उत्तर दे सके ॥४॥
तब इन्द्रभूति गौतम गर्व से सुनकर हँसने लगे और कहने लगे कि बलि देना वैध है और जब सिद्ध करने के लिए भगवान के सामने खड़े हुए तो लज्जित हो हक-बक हो गये कि ये तो वेद के वास्तविक अर्थ को जानते हैं ॥५॥
केवली भगवान् महावीर महान् जितेन्द्रिय पुरुष थे अतः एव उस समय की जनता मिथ्याचार का परित्याग कर जैन बन गये थे जो अभी तक हैं। अन्त में स्वयं पुष्कर मुनि गौतम मुनि को प्रणाम करते हैं कि अन्त में वे वस्तु तत्त्व को समझकर जैन धर्म को यथार्थ में पहचान सके ॥६॥
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