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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्यश्री जीतमलजी जी महाराज के द्वारा लिखित रचनाएँ आचार्यप्रवर, जैन आगमों में हजारों बातें ऐसी हैं जो बुद्धिगम्य मुझे जितनी भी उपलब्ध हो सकी हैं वे सारी रचनाएँ मैंने नहीं हैं और पागलों के प्रलाप-सी प्रतीत होती है। यही कारण है कि 'अणविन्ध्या मोती' के नाम से संग्रह की हैं जो अभी तक बनियों के अतिरिक्त जैन धर्म को कोई नहीं मानता। अप्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त भी आपकी अनेक रचनाएँ थीं और ।
आचार्यश्री ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-राजन्! आपका उनकी संख्या पचास-साठ ग्रन्थों की थी। ऐसा मुझे एक प्राचीन पत्र ।
यह मानना भ्रांतिपूर्ण है। स्वयं भगवान महावीर क्षत्रिय थे। वे सम्राट में उल्लेख मिला है। किन्तु वे सारी रचनाएँ आज मिलती नहीं है।
सिद्धार्थ के पुत्र थे। उनके नाना चेटक गणतन्त्र के अधिपति थे। आपश्री कुशल चित्रकार भी थे। आपने संग्रहणी अढाई-द्वीप का उनके शिष्य उस युग के जाने-माने हुए विद्वान थे और शास्त्रार्थ नक्शा, बसनाड़ी का नक्शा, केशी गौतम की चर्चा, परदेशी राजा करने में निपुण थे। भगवान महावीर के अमैक राजागण उपासक के स्वर्ग का मनोहारी दृश्य, द्वारिका दृश्य, भगवान अरिष्टनेमि की थे। आठ राजाओं ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर जैन धर्म बरात, स्वर्ग और नरक आदि विविध विषयों पर, लगभग दो की प्रभावना की और अनेक राजकुमारों ने, महारानियों ने भी हजार चित्र आपने बनाये हैं। सूर्य पल्ली आपकी बहुत ही उत्कृष्ट
संयम स्वीकार किया था और सम्राट श्रेणिक जैसे अनेक राजागण कलाकृति है जिसे देखकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र
भी महावीर के परम भक्त थे। उसके पश्चात् भी सम्राट चन्द्रगुप्त ने प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मुग्ध हो गये थे। आपने
आर्हती दीक्षा ग्रहण की। कुमारपाल जैसे प्रभावी राजा भी जैन धर्म सूई की नोंक से काटकर कटिंग की है, वह कटिंग अत्यन्त
के दिव्य प्रभाव से प्रभावित थे। अतः आपका यह कहना कि जैन का चित्ताकर्षक है। साथ ही आपने कटिंगों में श्लोक आदि भी लिखे हैं। धर्म बनियों का धर्म है, यह उचित नहीं है। आचार्य भद्रबाहु, आपका एक कटिंग तो बड़ा ही अद्भुत और अनूठा है। उसमें
समन्तभद्र, उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, हेमचन्द्र, अभयदेव, आपने इस प्रकार अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है कि
हरिभद्र, यशोविजय आदि अनेकों ज्योतिर्धर आचार्य हुए हैं जिन्होंने एक पन्ना होने पर भी आगे और पीछे पृथक-पृथक् श्लोक पढ़े जाते
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश में हजारों ग्रन्थों की रचना की। इसलिए हैं। भारत के मूर्धन्य मनीषी इसे विश्व का एक महान आश्चर्य
जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। जैन आगम साहित्य में प्रत्येक मानते हैं।
पदार्थ का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। राजन् ! आपने आगम
साहित्य को पढ़ा नहीं है। अतः आपको ऐसा भ्रम हो गया है कि एक बार आपश्री अपने शिष्यों के साथ संवत् १८७१ में
जैन आगमों में अनर्गल बातें हैं। वस्तुतः जैन आगमों में एक भी जोधपुर विराज रहे थे। उस समय आपके प्रवचनों की अत्यधिक
बात ऐसी नहीं है जो असंगत हो। धूम थी। जैन-अजैन सभी आपके प्रवचनों में उपस्थित होते थे और प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। कुछ ईर्ष्यालु विपक्षियों
राजा मानसिंह ने कहाको आचार्यश्री का बढ़ता हुआ तेज सहन नहीं हुआ। उन्होंने आचार्यप्रवर! आप कहते हैं कि आगम साहित्य में अनर्गल आचार्यश्री से कहा-आप कहते हैं कि पानी की एक बूंद में असंख्य बातें नहीं है, तो देखिए जैन आगमों में बताया गया है कि जल की जीव होते हैं, कृपया हमें प्रत्यक्ष बतायें। आचार्यश्री ने विविध एक बूँद में असंख्य जीव हैं। यह कितनी बड़ी गप्प है। यदि कोई युक्तियाँ देकर उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु वे कहाँ । विद्वान् इसे सुने तो वह जैन आगमों का उपहास किये बिना नहीं समझने वाले थे? उनके अन्तर्मानस में तो ईर्ष्याग्नि जल रही थी। वे रह सकता। आचार्यश्री का अपमान करने हेतु तत्पर थे। उन्होंने उस समय
आचार्यश्री ने पुनः गंभीर वाणी में कहाजोधपुर के नरेश मानसिंह के पास जाकर निवेदन किया कि हुजूर, आपके राज्य में जैन-साधु मिथ्या प्रचार करते हैं। वे कहते हैं कि
राजन्! जिसकी दृष्टि जितनी तीक्ष्ण होगी वह उतनी सूक्ष्म जल की एक बूंद में असंख्य जीव है। आप जरा उन्हें पूछे तो सही
वस्तु देख सकता है। तीर्थंकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। उनका कथन
कभी मिथ्या नहीं हो सकता है। उन्होंने जो कहा है वह अपने प्रत्यक्ष कि कुछ जीव निकालकर हमें बतावें। इस प्रकार मिथ्या प्रचार कर
ज्ञान से देखकर कहा है। जन-मानस को गुमराह करना कितना अनुचित है। आपश्री को चाहिए कि उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाय।
मानसिंह-आचार्यप्रवर! आपको ताज्जुब होगा कि हमारे वैदिक
परम्परा के शास्त्रों में इस प्रकार की कहीं पर भी गप्पें नहीं हैं जैसे राजा मानसिंह एक प्रतिभासम्पन्न राजा थे। वे कवि थे,
कि जैन शास्त्रों में हैं। विचारक थे। उन्होंने महाराजश्री के पास सन्देश भिजवाया। महाराजश्री ने उत्तर में कहा-जिन्हें जिज्ञासा है, वे स्वयं आकर
आचार्यश्री ने कहाजिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं। जिज्ञासु राजा आचार्यश्री राजन्! किसी भी मत और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में खण्डन की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् करना हमारी नीति नहीं है। हम तो हंस की तरह जहाँ भी सद्गुण आचार्यश्री से पूछा
होते हैं वहाँ से ग्रहण कर लेते हैं, पर आपने जो कहा वह उचित Jan Education trtemation
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