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________________ २० OD मंगलपाठ - उपाध्यायप्रवर जब दोपहर १२ बजे ध्यान-साधना पूर्ण कर उठते थे, तब वर्षाती बादलों की तरह जनमानस उमड़-घुमड़ कर मंगलपाठ सुनने के लिये आपकी ओर ऐसे खिंचे आते थे मानों किसी एक को अनमोल खजाना लुटाया जा रहा हो। १४ वर्ष की बालड़ी उमर में दीक्षा लेकर प्रभु महावीर की साधना के महामार्ग में आगे बढ़ने वाले श्रद्धेय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. ने जैन, वैदिक, बौद्ध आदि धर्म-शास्त्रों व साहित्य का ऐसा तलस्पर्शी अध्ययन किया कि आप उपाध्याय जैसे गरिमामय पद पर पहुँचे 'साधना साधक को सिद्धि दिलाती है' के अनुरूप आपकी वाणी में ऐसी शक्ति पैदा हो गयी कि उत्तर भारत से लेकर ठेठ दक्षिण भारत तक हजारों दुखार्त्त, रुग्ण, शोकसंतप्त लोगों के दुःख-दर्द आपश्री जी के मुखारविन्द से मंगलपाठ सुनकर दूर होते थे और तो क्या भूत-प्रेत, डाकिन, शाकिन आदि क्रूर देवी शक्ति के कोप से पीड़ित सैंकड़ों लोग आपश्री जी के मंगलपाठ से ठीक होते थे। क्योंकि संयम की साधना ऐसी चमत्कारिक साधन है कि उसके समक्ष देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि भी स्वतः नतमस्तक हो जाते हैं देवदाणव-गंधव्वा जक्ख रक्खस किण्णरा। बंभयारिं णमंसंति दुक्करं जे करति तं ॥ - उत्तरा. अ. १६ सुयोग्य शिष्य ठाणांग शास्त्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने चार तरह के पुत्रों का वर्णन किया है। उनमें उत्कृष्ट पुत्र है अतिजात पुत्र जो अपने जनकल्याण के सत्कार्यों से अपने माता-पिता की यश कीर्ति से भी बहुत आगे बढ़ते हैं। पुत्र की तरह ऐसे ही शिष्य और शिष्याएँ भी होते हैं। वैसे तो उपाध्यायप्रवर की यश-कीर्ति दिगदिगन्त तक फैली है उसे और फैलाने का काम किया आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने। संस्कृत में एक सूक्ति आती है 'पुत्रात् शिष्यात् पराजयेत्' उपाध्यायप्रवर ने छोटी उमर में ही श्रद्धेय श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. को दीक्षित कर साधना के ऐसे साँचे में ढाला, ऐसे आगे बढ़ाया कि अपनी आँखों के समक्ष ही अपने हाथों से तराशा हुआ हीरा (शिष्य) श्रमणसंघ जैसे विशाल सन्त समुदाय के आचार्य पद पर शोभित होते हुए देखा। आने वाले कल में जब इतिहास में आचार्यों की गाथाएँ लिखी जायेंगी उसमें आपश्री जी का आचार्य के गुरु के रूप में स्मरण होता रहेगा। बहुमुखी प्रतिभा के धनी उपाध्यायश्री के जीवन को शब्दों के माध्यम से अंकन करना समुद्र को गागर में भरने के प्रयत्न के उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ समान है। वर्तमान समय में ७०-७२ वर्ष की उम्र पाना भी कठिन है पर उपाध्याय प्रवर तो ७0 वर्ष की सुदीर्घ दीक्षा पर्याय पालन कर स्व-पर कल्याण में लगे रहे। और अन्त में जीवन-दीपक को बुझता हुआ जानकर पंडितमरण (संथारा) अंगीकार कर जीवन सँवार गये। शास्त्रकार कहते हैं-जो पंडित मरण को प्राप्त होता है वह अल्पसंसारी होता है। भले ही उपाध्यायप्रवर की पंचभूतात्मक देह हमारे समक्ष नहीं है लेकिन उनका यश-शरीर हम सबके बीच में है और रहेगा। उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलना ही उस महापुरुष के प्रति सच्ची भावांजलि होगी। उपाध्याय श्री का जीवन संपूर्ण घट के समान था -उपप्रवर्तक प्रवचन केसरी श्री अमर मुनिजी जैन सूत्रों में व्यक्ति के मानसिक विकास और चारित्रिक क्षमता को एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है। १. कुछ व्यक्ति उस घट के समान होते हैं, जिसका नीचे का तला फूटा हुआ होता है घट में जितना पानी डाला जाए यह एक साथ नीचे से बह जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ज्ञान एवं चारित्रिक गुणों की निधि प्राप्त करते हैं, परन्तु उसे जीवन में संरक्षित / सुरक्षित नहीं रख सकते। जो कुछ मिला उसे खो दिया। २. कुछ लोग उस घट के समान होते हैं जो बीच से फूटा होता है। बीच से फूटे घट में जितना पानी डाला जाये, उसका आधा तो व्यर्थ ही चला जाता है ऐसी जीवन-शैली वाले व्यक्ति ज्ञान एवं आचार की बात जितनी सुनते व प्राप्त करते हैं, उसका आधा ही ग्रहण कर पाते हैं। ३. कुछ व्यक्ति ऊपर से फूटे हुए घट के समान होते हैं। ऐसी मनोवृत्ति वाले सुने हुए / पढ़े हुए ज्ञान एवं चारित्र का आचरण तो कर लेते हैं, परन्तु कभी-कभी प्रमाद एवं आलस्य करके प्राप्त हुई ज्ञान एवं श्रुत निधि को खोते भी जाते हैं। ४. कुछ व्यक्ति पूर्ण घट के समान होते हैं जिसमें डाली गई एक भी बूँद व्यर्थ नहीं जाती। ऐसी जागृत एवं अप्रमत्त जीवन दृष्टि जिनके पास होती है, वे गुरु से, शास्त्र से जो भी प्राप्त करते हैं, उसे सम्पूर्ण रूप में जीवन में रमा लेते हैं। For Private & Personal Use Only उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन सम्पूर्ण घट के समान था। उन्होंने गुरु से, शास्त्र-स्वाध्याय से, साधना-आराधना से, जीवन में जो प्राप्त किया उसे सदा सुरक्षित रखा। वे अपनी जीवन चर्या में सदा सावधान और निष्ठावान रहे। साधना के अमृत को, www.jaihelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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