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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ की रक्षा रूपी कृपा दृष्टि रखते रहे की परिचालना अपने अन्तर् के केन्द्र से थी, बाह्य से प्रभावित ताकि इस तीर्थ को आपश्री के महान आदर्शों की सद्प्रेरणा । होकर जीवन जीना उन्हें अस्वीकार्य था, तभी तो “जहा अंतो तहा मिलती रहे।
बाहि" का जिनसूत्र उनके व्यक्तित्व से अर्थ पाता था। बाहर और अन्तर् का द्वंद्व नहीं होने से उनके भीतर समग्रता का सूर्योदय
हुआ। बाहर से होने वाले द्वंद्व से वे निर्द्वद्व रहे यहीं से उनकी जानहू सत अनत समाना
ऊँचाइयों को मापा जा सकता है। -साध्वी राजश्री, एम. ए. (संस्कृत) शिष्य के रूप में वे सुयोग्य रहे तो गुरु के रूप में सुयोग्यतम! (महासती श्री चारित्रप्रभा जी की सुशिष्या) अपने हाथों से जिस मूर्ति को गड़ा, उसी को मंदिर में सजाकर
पूजकर स्वयं को विदा कर लिया। मरण को सुमरण बना दिया संत अनंत को अपने भीतर समेट कर जीता है। अस्तित्व के
जिसे स्व का स्मरण होता है, वही मरण को सुमरण बना सकता है। साथ उसके व्यक्तित्व तथा उसके व्यक्तित्व के साथ अस्तित्व का
मरण के बाद भी वे अमृतधर्मा रहे क्योंकि जो मरता है, वह संत अनहनाद गूंजता रहता है। संत का व्यक्तित्व अस्तित्व की श्रेष्ठतम
नहीं होता। संत तो सदैव अमृत होता है। नश्वर से ईश्वर की ओर संरचना है, क्योंकि वह अपने आपको समग्र के लिए समर्पित
बढ़े उनके चरण मृत्यु न होकर चिर-जीवन की कामना है, अगर करता है। संत की गति, वृत्ति, प्रवृत्ति व प्रकृति के साथ जुड़ी है,
अमृत की इस आराधना को मृत्यु कहेंगे तो फिर जीवन क्या होगा? जो निखिल चराचर का अपने भीतर संवरण किए हुए है।
जीवन के अमर अधिष्ठान में वह महान चेतना रूपायमान हो इसी परम श्रद्धानिधि उपाध्याय पू. प्रवर गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी सदा कांक्षा के साथ अमृत पुरुष गुरुप्रवर की स्मृति को शाश्वत म. इस सत्य के मूर्ति मंत प्रतीक थे। उनके संतत्व में एक प्रणाम। रचनात्मक साधुता थी, वे जहाँ भी जाते सृजनात्मकता उनके साथ-साथ चली जाती। शैशव जब कैशोर्य की संकरी गली से गुजर ।
कृतज्ञता के दो बोल POP रहा था तभी वे महामना संत रत्न महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. के आँखों के तारे बने। अपनी साधना के साथ अभिनव रचना के
-साध्वी प्रियदर्शना 'प्रियदा' व्य फूल खिलाए। एक योग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य के रूप में उनकी
घटना उन दिनों की है, जब मेरी जीवन-यात्रा का दसवां 288 संयम-यात्रा गतिशील हुई। संयम की यात्रा पर वे गतिशील रहे और
बसन्त चल रहा था। अध्यात्मयोगी, वात्सल्यवारिधि, परम श्रद्धेय गतिशीलता ही प्रगतिशीलता का पर्याय है। संतत्व को उन्होंने लिया
पूज्य गुरुदेव श्री उपाध्याय-प्रवर पुष्कर मुनिजी म. सा. अपनी ही नहीं अपितु साधुता को जीया था। हर क्षण जागृति की यात्रा पर
शिष्य मंडली के साथ उदयपुर संभाग में पधारे। हमारी दादीजी श्री उनके चरण बढ़ते रहे, गतिशील पांव प्रगति के गीत गाते रहे,
चन्द्रकंवर जी म. सा. एवं भुआजी श्री चंद्रावती जी म. सा. ने आगे बढ़ने का यह क्रम कभी रुका नहीं, हर अवरोध को बिना
आपकी निश्राय में दीक्षा अंगीकार की हुई थी। मेहता परिवार विरोध के झेल गए। उत्तेजना से दूर हटकर उन्होंने चेतना के ।
आपकी वरद् कृपा पाकर अनुग्रहित था और है। नवोनमेश को जगाया इसीलिए वे साधना के सहज संगायक थे।
हमारे पिताश्री श्रीमान आनंदीलाल जी मेहता हमेशा आपके प्रेरणा के प्रतीक पुरुष के रूप में वे सदा स्मरणीय रहेंगे,
| ज्ञान-वैराग्य गर्भित आध्यात्मिक प्रवचनों को सुनने पधारते थे, और उनकी प्रेरणाओं के सहन दल कमल कभी मुझाए नहीं, अपितु
हमें भी साथ में ले जाते। गुरुदेव का प्रवचन प्रारंभ होते हीउनकी सृजन सुगन्ध जन-मन के अन्तश को तरंगायित करती रही। जहाँ गए वहाँ समता, प्रेम, शान्ति का प्रसाद बांटा। आस्था और
“जय हो जय हो साधु-जीवन की, विश्वास की समन्वित ज्योति जलाई। निराश आँखों में आशा का
साधु जीवन की त्यागी जीवन की।" 30 अंजन आंझा, टूटे हुए परिवारों को जोड़ा। बिखरती हुई ___ ये भावपूर्ण पंक्तियाँ सुनते ही हृदय झंकृत हो जाता, वाणी
सामाजिकता के एकता सूत्र बने। उनका व्यक्तित्व सेतु की तरह था, । मुखरित हो उठती थी। श्रोतागण झूम-झूमकर बड़ी तन्मयता के साथ जो दो अलग हुए तटों को जोड़ता था।
ये पंक्तियाँ गाते थे। सुप्त आत्माओं को भी मानो जागरण का मंत्र महाप्राण गुरुवर स्वयं नाव, नाविक, पतवार तथा सागर थे।
मिल गया हो। उनकी श्रद्धा जलराशि में जो जितना डूबा वह उतना ही तिर गिया। गुरुदेव के त्याग-वैराग्य से संपृक्त मुखारविंद से निकली हुईं ये उनके जीवन का एक अनूठा पहलू यह भी था कि उनकी चेतना ने } गीत की पंक्तियाँ बच्चा-बच्चा गुनगुनाता रहता था। उसमें मैं भी कभी आवेश में प्रवेश नहीं किया। स्वयं को उस धरातल से कभी एक थी जो चलते-फिरते, उठते-बैठते हर वक्त इन पंक्तियों को विचलित नहीं किया जहाँ से वह ऊर्जा प्राप्त करते थे, उनके जीवन गुनगुनाती रहती थी।
काजल
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