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कर लेती। किसी का पानी भरती, किसी के बर्तन साफ करती और किसी के कपड़े धोती। संर्ग ग्वाले का काम करने लगा। वह सेठ साहूकारों के गाय बछड़े लेकर उन्हें चराने जंगल जाता। दोनों माँ-बेटे जो कुछ प्राप्त करते, उससे दोनों मिलकर अपना पेट भरते।
एक बार किसी व्यापारी के यहाँ उसके मेहमान आ गए। उसने चन्द्रा को सबेरे बहुत जल्दी घर बुलाया। सर्ग गाय-बछड़े लेकर जंगल चला गया था। चन्द्रा ने झटपट रोटियाँ सेकीं और कुछ मट्ठा और रोटियाँ वर्ग के लिए छीके पर रख दरवाजे की सॉकल लगा, बिना कुछ खाये पीये व्यापारी के यहाँ चली गई।
चन्द्रा ने व्यापारी के यहाँ सुबह से शाम तक जी तोड़ परिश्रम किया। लेकिन मेहमानों की व्यस्तता के कारण व्यापारी ने तथा व्यापारी के किसी कुटुम्बी ने चन्द्रा से खाने की न पूछी। सभी मेहमानों के स्वागत-सत्कार में लगे रहे। इधर सर्ग जंगल से लौटा। उसने सोचा माँ कहीं गई है, वह आयेगी तो खाना देगी। अतः वह माँ के इन्तजार में बाहर ही बैठ गया। कुछ ही क्षणों में भी सर्ग की व्याकुलता बढ़ गई। भूख के मारे उसका बुरा हाल था। उसे माँ पर रह-रह कर क्रोध आ रहा था। इधर चन्द्रा व्यापारी के यहाँ सेवा में फँसी थी। शाम को जब चन्द्रा ने छुट्टी पाई तो खाली हाथ घर लौटी। वह व्यापारी की शोषण वृत्ति पर क्षुब्ध थी, क्योंकि उसने यह कह दिया था, अपनी मजदूरी कल ले जाना, इस समय घर में मेहमान हैं। दूसरे, चन्द्रा भी सुबह से भूखी थी, इधर चन्द्रा का इन्तजार करते-करते सर्ग की आँखे पथरा गई थीं, भूख के कारण उसके प्राण निकले जा रहे थे। जैसे ही चन्द्रा घर आई और सर्ग ने माँ को देखा तो वह क्रोधोन्मत्त हो बोला
“पापिनी, दुष्टे! क्या व्यापारी ने तुझे शूली पर चढ़ा दिया था, जो तू अब तक बैठी रही ?"
चन्द्रा अपनी पराधीनता पर दुखी थी यह पराधीनता भी मनुष्य जीवन की कैसी बिडम्बना है। पराधीनता बिना मृत्यु की मृत्यु, बिना अग्नि के प्रज्वलन बिना जंजीर का बन्धन, बिना पंक की मलीनता और बिना नरक के नारकीय वेदना है। पुत्र सर्ग की ऐसी विष भरी वाणी सुनकर चन्द्रा को भी क्रोध आ गया उसने भी प्रत्युत्तर में कहा
"क्या तेरे हाथ कट गए थे, जो तू न तो साँकल खोल सका और न छीके पर से रोटियाँ उतार कर खा सका ?"
इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे से कठोर वचन कहकर दारुण दुःखों की नींव डाली- दुस्सह कर्मों का अर्जन किया।
एक बार दोनों ने एक मुनि का उपदेश सुन श्रावक व्रतों को ग्रहण किया और जीवन के अन्त में दोनों ने अनशन कर समाधि पूर्वक मृत्यु का वरण किया। मरकर दोनों को देवभव प्राप्त हुआ। दोनों बहुत दिनों तक देवलोक में रहे। देवलोक से सर्ग का जीव
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
च्युत हुआ और वह ताम्रलिप्ति नगरी में श्रेष्ठी कुमारदेव के यहाँ अरुणदेव के रूप में जन्मा । चन्द्रादेवी का जीव इसी पाटलिपुर नगर में श्रेष्ठी जसादित्य की पुत्री वेथिणी के रूप में उत्पन्न हुआ।
कथा को आगे बढ़ाते हुए मुनीश्वर चन्द्रधवल ने कहा
“प्राणियो ! चन्द्रा ने सर्ग से हाथ कटने की बात कही और सर्ग ने चन्द्रा से शूली चढ़ने की बात कही मुँह से आदमी जो कुछ कहता है, वह व्यर्थ नहीं जाता; यहाँ तक कि मन में सोचा हुआ भी व्यर्थ नहीं जाता उल्टा सीधा कैसा ही बीज भूमि में डालो, यह अवश्य उगता है । चन्द्रा की वाणी चूँकि प्रत्युत्तर में थी, इसलिए वह अधिक कठोर थी और इसीलिए देयिणी के रूप में चन्द्रा के हाथ काटे गए। सर्ग की वाणी उतनी कठोर न थी, इसलिए वह शूली पर चढ़ा, पर बच गया।"
अन्त में सभी धर्मानुरागियों से मुनीश्वर ने कहा
"प्राणियो! काया से की हुई हिंसा तो बहुत दूर की बात है, मन से सोची हुई हिंसा भी जीव का विघात करने वाली और नरक के दुःख को देने वाली है।
“एक बार कुछ लोग वैभारगिरि के जंगल में वनभोज (पिकनिक) के लिए गए। तभी एक भिक्षुक वहाँ आया। लेकिन कर्मदोष के कारण उसे भिक्षा न मिली। इस पर भिक्षुक का मन क्रोध से भर गया और उसने सोचा, 'इन लोगों के पास अपार भोजन सामग्री है। कहकहे लगाकर माल उड़ा रहे हैं, पर मुझे तनिक-सी भिक्षा नहीं दी। ऐसा मन होता है कि इन सभी को मार डालूँ।' यह सोच भिक्षुक पहाड़ पर चढ़ गया और एक बड़ी भारी शिला वनभोजियों पर लुढ़का दी। शिला के साथ वह भिक्षुक भी नीचे आ रहा। वनभोजी तो शिला के नीचे दब कर मरे ही, वह भिक्षुक भी मर गया।
'हे प्राणियो! इसीलिए मन, कर्म, वचन से हिंसा का त्याग करना चाहिए। अहिंसा ही सब धर्मों का मूल है। मूल को सींचने से ही वृक्ष हरा-भरा रहता है।"
मुनीश्वर की वाणी सुनकर सभी श्रोता प्रतिबुद्ध हुए। देयिणी और अरुणदेव को जाति स्मरण हुआ। दोनों ने एक दूसरे को क्षमा कर दिया और दोनों का मन वैराग्य से भर गया। अरुणदेव व देविणी का पूर्वभव सुन राजा ने विचार किया- 'जब साधारण से कठोर वचन बोलने से ऐसी दशा होती है तो मेरी क्या गति होगी ? वास्तव में यह संसार बड़ा विचित्र है ।'
अरुणदेव देयिणी के साथ राजा और श्रेष्ठी जसादित्य ने चारित्र ग्रहण किया। जिस चोर ने देयिणी के हाथ काटे थे और कंगन लिए थे, वह चोर भी मुनि की धर्मसभा में उपस्थित था। उसने भी अपना अपराध स्वीकार किया और सबके साथ
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