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महादानी कर्ण के प्रसंग पर
धन हो चाहे पास में, दिया न जाता दान।
देने वाला ही यहाँ माना गया महान् ॥
कर्ण ने जब अपने कठोर कवच-कुण्डल तक भी दान कर दिए तब भी
मलिनता मुख पर न झलकी, देख छल होता हुआ। दान वह भी दान क्या, दिल दे अगर रोता हुआ ।।
सहजता तथा सचाई की दृष्टि से यह कितनी मार्मिक उक्ति है ? दान तो देना ही चाहिए, किन्तु दानी के हृदय में उसके लिए न गर्व होना चाहिए और न ही दुःख ।
इसी प्रकार भीम के परोपकार प्रसंग पर वक्र-असुर का यह कथन भी काव्य-सौंदर्य की कसौटी पर कितना खरा उतरता है
अरे दुष्ट डरता नहीं, क्यों खाता यह माल? माल जिसे तू मानता, माल नहीं वह काल ॥
भाई के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कवि सहज रूप से ही कितनी गम्भीर बात कह जाता है
भारत की यह रीति रही है, भाई अपना भाई है। कभी-कभी भाई-भाई में होती क्या न लड़ाई है? भाई कहाँ पीठ का मिलता, मिलता कंचन गाँठ का भाई से बढ़कर क्या होती, मीठी यहाँ मिठाई है?
उपरोक्त पंक्तियों में भाई के महत्व तथा मधुर एवं प्रगाढ़ सम्बन्धों का अति सुन्दर चित्रण है।
वैराग्यमूर्ति जम्बूकुमार चरित्र में विविध घटनाओं और भावों को व्यक्त करते हुए कवि ने अत्यन्त सुकुमार शब्दावली का प्रयोग किया है। देखिए उदाहरण
परम प्रभावक प्रभव के, परम पूज्य गुरु आप। जम्बूजी की जीवनी, पूर्णतया निष्पाप ॥
बोले बिना, बिना डोले ही और बिना खोले ही आँख । अनुमति दे दी है दीक्षा की, भोले पति के सन्मुख झाँक ॥ देता दान मान भी देता, होने देता मान नहीं । मान दान का होना क्या है, दाता का अपमान नहीं ॥
मानव की भावनाओं को प्रांजल करने हेतु कवि ने यत्र-तत्र नैतिक जीवन का उपदेश भी दिया है
स्वास्थ्य विरोधी द्रव्य मिलाकर, द्रव्य कमाने वाले जन । धन का सपना नहीं देखते, केवल खुश कर लेते मन ॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
शक्ति संगठन में
होती है, इसीलिए सब रहते एक।
सभी एक हों, सभी नेक हों, इसमें ही हैं सिद्धि अनेक ॥
निराशावाद जीवन के लिए हितकारी नहीं है। अतः निराशावाद
का खण्डन करते हुए कवि कहता है
चलने वाले राही ही तो रास्ता भूला करते हैं।
डाली टूटा करती उनकी जो नर झेला करते हैं । गिरते जो घोड़े चढ़ते थे, नहीं पिसाटा गिर सकती, उपल बीनने वाली बुढ़िया, क्या सेना से घिर सकती?
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर भी कवि ने अच्छा व्यंग किया है। और कहा है कि जो शिक्षा बालकों में विनय की भावना न भरती हो, उनके विवेक को उबुद्ध न करती हो, जो मानव को मानव के साथ प्रेमपूर्वक रहना न सिखाती हो, जिसे स्वयं अपना ही ज्ञान न हो वह शिक्षा क्या है? उस शिक्षा से तो भिक्षा माँगना ही भला । कवि के मार्मिक शब्द हैं
सदुपयोग शिक्षा का करना, सौ शिक्षा की शिक्षा एक । वह शिक्षा क्या शिक्षा है जो सिखला पाती नहीं विवेक! पढ़कर भी इतिहास आप में जगा आत्मविश्वास नहीं। उस दीपक को दीप कहें क्या, जिसके पास प्रकाश नहीं ॥
जिज्ञासा ही दर्शन की जननी है। बिना जिज्ञासा के व्यक्ति सत्य-तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकता। धर्म का सही मर्म वही व्यक्ति समझ सकता है जिसके अन्तर्मानस में प्रबल जिज्ञासा है। कवि ने सत्य ही कहा है
धर्म-धर्म कहते सभी धर्म-धर्म में फर्क । मर्म धर्म का समझ लो, करके तर्क-वितर्क ॥
जीवन में कभी उन्नति होती है और कभी अवनति होती है। यह एक झूले की तरह है जो कभी ऊपर तो कभी नीचे आता-जाता रहता है। महामात्य शकडाल और वररुचि के जीवन-प्रसंग को चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है
क्या से क्या होता घटित, अघटित सारा कार्य। इसीलिए अध्यात्म पर बल देते सब आर्य ॥ बादल प्रतिपल में यथा, बदला करते रंग।
रंग बदलता देखिए, अंगी का निज अंग ॥
आहार जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। बिना आहार के न ज्ञान हो सकता है, न ध्यान हो सकता है और न प्रचार ही हो सकता है। कवि ने इसी तथ्य को अपनी भाषा में इस प्रकार व्यक्त किया है
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श्रम स्वाध्याय नहीं हो पाते, मिलता जब आहार नहीं । जब आहार नहीं मिलता तब होता पाद-विहार नहीं ॥
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