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सदुपदेश से होता है। संत उपदेश को पाकर उनके जीवन में नया मोड़ आता है।
श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. एक महान् योगी, तपोधन अध्यात्मनिष्ठ, सरल एवं सौम्य ज्ञान वृद्ध और | बयवृद्ध महापुरुष थे। गुरुदेवश्री के दर्शन मैंने बहुत ही लघुवय में किए। गुरुदेवश्री अरावली की पहाड़ियों में अवस्थित हमारे गांव में पधारे थे, उस समय बड़े गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. भी साथ में ही थे, हमारे को गुरुदेवश्री ने सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की थी । गुरुदेवश्री के प्रति हमारे परिवार के, हमारे प्रान्त के सभी सदस्यों की अपार निष्ठा रही है और गुरुदेवश्री की भी हमारे पर असीम कृपा रही हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर आपक्षी ने समयाभाव होते हुए भी चादर समारोह में पधारना बहुत ही आवश्यक होने पर भी हमारे प्रान्त को दस दिन का समय दिया और सभी गांवों में पधारे। उन विकट रास्तों को पार कर गुरुदेवश्री का हमारे प्रान्त में पदार्पण हुआ, जिससे हम धन्य-धन्य हो उठे, गुरुओं की कृपा कितनी महान होती है, वे स्वयं कष्ट सहन करके दूसरों का उपकार करते हैं।
गुरुदेवश्री के चरणों में हमारी भाव-भीनी वंदना ।
वे युग पुरुष थे
- सुन्दरलाल बागरेचा, मेरठ (उदयपुर)
भारत की पावन पुण्य धरा पर समय-समय पर संत पुरुषों का आगमन हुआ है। उन्होंने यहाँ की मिट्टी और हवा में अपने जीवन के और उज्ज्वल, समुज्ज्वल संस्कार वपन किए हैं, वे संस्कार आज भी अंकुरित हैं, भारत ने सदैव ही सम्राट के चरणों में नहीं अपितु संतों के चरणों में अपना उन्नत मस्तक झुकाया है, इस प्रकार भारतीय चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है संत ।
स्थानकवासी समाज में समय-समय पर युग पुरुष पैदा होते रहे हैं, जो अपने विमल विचारों से जन-जन को प्रेरणा देते रहे हैं, उन्हीं युग पुरुषों की लड़ी की कड़ी में परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम लिया जा सकता है। श्रद्धेय गुरुदेवश्री अभी कुछ समय पहले हमारे मध्य में थे, पर आज वे हमारे मध्य में नहीं हैं, उस विमल विभूति के वियोग ने समाज को अनाथ बना दिया। वे आज नहीं रहे हैं इस सत्य और तथ्य को हमारा भक्ति परायण मन मानने को तैयार नहीं है पर सत्य को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता, यह सत्य है कि अब उनकी भौतिक देह हम नहीं देख सकते हैं किन्तु उनका आध्यात्मिक रूप हमारे कण-कण में समाया हुआ है, उनका भौतिक वियोग भले ही हो गया हो किन्तु आध्यात्मिक जीवन हमारे सामने है।
एक पाश्चात्य चिन्तक ने लिखा है कि मानव मरणशील है तो मानव अमर भी है, जैन दृष्टि से भी यह कथन सत्य है क्योंकि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
पर्याय दृष्टि से मृत्यु होती है पर द्रव्य-दृष्टि से आत्मा अजर-अमरअविनाशी है, उसका वियोग कभी नहीं हो सकता। श्रद्धेय गुरुदेवश्री का जीवन गुणों का पुंज था ये प्रवक्ता थे, लेखक थे, विचारों से उदार थे, अहंकार और ममकार का उनमें नामोनिशान नहीं था, उनकी वाणी में मधुरता भरी हुई थी और उनका व्यवहार बहुत ही चित्ताकर्षक था, जो महानुभाव गुरुदेवश्री के सान्निध्य में रहे वे इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं कि गुरुदेवश्री का जीवन हिमालय से भी ऊँचा था, सागर से भी अधिक गंभीर था, उनके मन की गरिमा ने और उनके कार्य की महिमा ने जन-जन को श्रद्धानत् किया था, पवित्र किया था।
गुरुदेवश्री मन से पवित्र थे, हृदय से सरल थे, बुद्धि से प्रखर थे और व्यवहार से बहुत ही मधुर थे। क्या संत और क्या गृहस्थ, सभी पर उनकी स्नेह दृष्टि होती थी, उनके जीवन कोष में सभी अपने थे, कोई भी पराया नहीं था। सभी को प्रेम प्रदान करना उनका जीवन व्रत था ।
सन् १९८४ का चांदनी चौक दिल्ली का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर गुरुदेवश्री अपने शिष्यों के साथ मेरठ पधारे। उस समय यहाँ पर विराजे हुए आदरणीय प्रवर्तक श्री शांति स्वरूप जी म. की दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव का कार्यक्रम था। अन्य अनेक संत भी उस समय वहाँ पर पधारे थे। गुरुदेवश्री के प्रथम दर्शन में ही मैं प्रभावित हुआ। उ. प्र. की धरती में मेवाड़ प्रान्त से पधारे हुए संतों को निहारकर मेरा मातृभूमि का प्रेम सहज रूप से प्रगट हो गया और गुरुदेवश्री की भी मेरे पर और मेरे परिवार पर असीम कृपा रही, वे घर और हमारी फैक्ट्री पर पधारे। उस प्रथम परिचय के पश्चात् मैंने बीसों बार गुरुदेवश्री के दर्शन किए। मैंने सोचा कि ऐसे महापुरुष जिनके दर्शन से ही मन में अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। क्यों नहीं मैं अपने संघी साथियों को भी इस पुण्य कार्य में सहभागी बनाऊँ और मैं वर्षों से शिक्षाविद् और शासन में सेवा करने वाले अनेक व्यक्तियों को लेकर बस के द्वारा सेवा में पहुँचता रहा हूँ। और जो भी मेरे साथ चलते रहे हैं ये भी गुरुदेवश्री के अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते। सभी के मन में गुरुदेवश्री के प्रति अपार आस्थाएँ मुखरित हो गईं।
गुरुदेवश्री इतने महान् रहे कि उन्होंने अपने शिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को खूब अध्ययन करवाया और गुरुदेवश्री की प्रेरणा से ही उन्होंने लिखना भी प्रारंभ किया और उन ग्रन्थों को प्रकाशित करने की सेवा का मुझे भी अवसर मिला। ग्रंथ भी बहुत ही जानदार हैं। एक बार पढ़ना प्रारंभ करने पर जब तक उसे पूरा नहीं करते तब तक ग्रन्थ हाथ से छूट नहीं सकता। उदयपुर चद्दर समारोह पर मैं सपरिवार मेरठ से उदयपुर पहुँचा और बहुत ही आनंद और उल्लास के क्षणों में चद्दर समारोह का मंगलमय कार्य संपन्न हुआ, दीक्षाएँ हुईं पर गुरुदेवश्री काफी अस्वस्थ हो गए।
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