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भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् यद्यपि जैन गगन में किसी सहस्ररश्मि सूर्य का उदय नहीं हुआ किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि समय-समय पर अनेक ज्योतिष्मान नक्षत्र उदित हुए जो अज्ञान अन्धकार से जूझते रहे अपने दिव्य प्रभामण्डल के आलोक से विश्व का पथ-प्रदर्शन करते रहे ऐसे प्रभापु ज्योतिष्मान नक्षत्रों से जप-तप, सेवा सहिष्णुता और सद्भावना की चमचमाती किरणें विश्व में फैलती रही है। ऐसे ही एक दिव्य नक्षत्र थे अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज आपका जन्म बाड़मेर जिले के समदड़ी ग्राम में विक्रम संवत् १९१४ पौष कृष्णा तीज को हुआ था आपके पूज्य पिताश्री का नाम हस्तिमलजी और माताजी का नाम लक्ष्मीबाई था जिन्हें प्रेम के कारण लोग हाथीजी और लिछमाबाई भी कहा करते थे। आपका वंश ओसवाल और लुंकड़ गोत्र था। आपके पूज्य पिताश्री और मातेश्वरी दोनों ही धर्मनिष्ठ थे। पिताश्री व्यापारकला में कुशल थे। वे न्याय और नीति से और कठोर परिश्रम से धन कमाते थे। मातेश्वरी लक्ष्मी बहन को सत्संगति बहुत ही प्यारी थी। जब भी समय मिलता उस समय को वह निरर्थक वार्तालाप या किसी की निन्दा विकथा न कर धर्मस्थानक में पहुँचती और मौन रहकर समभाव की साधना करती जिसे जैन परिभाषा में सामायिक कहते हैं। माता के संस्कार बालक ज्येष्ठमलजी के जीवन में झलकने स्वाभाविक थे।
अध्यात्मयोगी सन्तश्रेष्ठ ज्येष्ठमलजी महाराज
नेपोलियन से किसी जिज्ञासु ने पूछा कि आपने यह वीरता कहाँ से सीखी? उसने उत्तर में कहा कि माता के दूध के साथ मुझे प्राप्त हुई थी। यदि कोई साधक ज्येष्ठमलजी महाराज के पूछता कि आपके जीवन में आध्यात्मिकता कैसे आयी तो सम्भव है कि वे यही कहते कि माता की जन्मपूँटी के साथ ही मिली। सत्य-तथ्य यह है कि माता के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं ये चिरस्थायी होते हैं। बालक का हृदय निर्विकारी होता है। यह कच्ची मिट्टी के पिण्ड के सदृश है माता-पिता जैसा संस्कार उसमें भरना चाहे जैसी मूर्ति निर्माण करना चाहें वैसा ही कर सकते हैं।
बालक ज्येष्ठमलजी का अध्ययन समदड़ी में ही सम्पन्न हुआ। उस युग में गाँवों में उच्चतम अध्ययन की कोई व्यवस्था नहीं थी । जीवनोपयोगी अध्ययन कराया जाता था । अध्ययन सम्पन्न होने पर हस्तीमलजी ने अपने पुत्र का विवाह सम्बन्ध करना चाहा। पुत्र ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे अभी विवाह नहीं करना है। मेरे अन्तर्मानस में संसार के प्रति किंचित् मात्र भी आसक्ति नहीं है।
ज्योतिर्धर जैनाचार्यश्री पूनमचन्दजी महाराज जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म-दीप जलाते हुए समदड़ी पधारे आचार्यश्री के पावन उपदेशों को सुनकर किशोर ज्येष्ठमल जी के मन की कलियाँ उसी प्रकार खिल गयीं जैसे सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर सूरजमुखी फूल खिलता है। किशोर ज्येष्ठमलजी के भीतर दिव्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
संस्कारों की झलक थी। सत्संग से शनैः-शनै विचारों में एक रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और किशोर ज्येष्ठमलजी ने एक दिन अपने विचार माता-पिता के सामने रखे। माता-पिता ने कहा बत्स अभी तुम युवावस्था में प्रवेश करने जा रहे हो। तुम हमारे कुल- दीपक हो। पहले विवाह करो और तुम्हारी सन्तान होने के पश्चात् तुम साधना के मार्ग को स्वीकार करना । भगवान महावीर ने भी तो माता-पिता के आग्रह से विवाह किया था। फिर तुम्हें इतनी क्या जल्दी है ?
किशोर ज्येष्ठमल ने कहा- पूज्यप्रवर, आपका कथन उचित है। वे विशिष्ट ज्ञानी थे, किन्तु मुझे विशेष ज्ञान नहीं है जिससे मैं कह सकूँ कि मेरी इतनी उम्र है। विषय तो विष के समान भयंकर है। क्या कभी रक्त से सना हुआ वस्त्र रक्त से साफ हो सकता है ? वैसे ही विषय विकारों से किसी की तृप्ति नहीं हुई है। मुझे उनके प्रति किसी भी प्रकार का आकर्षण नहीं है। आप मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें जिससे मैं आचार्यप्रवर के सन्निकट प्रव्रज्या ग्रहण कर जीवन को निर्मल बना सकूँ।
पुत्र की उत्कृष्ट विरक्त वृत्ति को देखकर माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान की और सत्रह वर्ष की उम्र में सं. १९३१ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी दीक्षा समदड़ी में ही सम्पन्न हुई। आचार्यश्री के सान्निध्य में रहकर आपने आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आपकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। आपने जीवन की महान् विशेषता की स्वाध्याय और ध्यान। दिन में अधिकांश समय आपका स्वाध्याय में व्यतीत होता था। आपका अभिमत था कि जैसे शरीर की स्वस्थता के लिए भोजन आवश्यक है, वैसे ही जीवन की पवित्रता के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। जैसे नन्दनवन में परिभ्रमण करने से अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है वैसे ही स्वाध्याय के नन्दनवन के विचरण करने से जीवन में आह्लाद होता है। स्वाध्याय वाणी का तप है। उससे हृदय का मैल धुलकर साफ हो जाता है। स्वाध्याय एक अन्तःप्रेरणा है जिससे आत्मा परमात्मा बन जाता है। स्वाध्याय से योग और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। स्वाध्याय का अर्थ है अपनी आत्मा का अपने अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर अध्ययन करना। मैं कौन हूँ और मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है इत्यादि का चिन्तन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है, जन्म-जन्मान्तरों में संचित किये हुए कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं। स्वाध्याय अपने आप में एक तप है। उसकी साधना-आराधना में साध को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। निरन्तर स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है और शास्त्रों के गम्भीर भाव उसमें प्रतिबिम्बित होने लगते हैं।
रात्रि का अधिकांश समय आप जप-साधना में लगाते थे। मन को स्थिर और तन्मय बनाने के लिए अशुभ विचारों से हटकर शुभ
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