________________
९४
दान में कुछ रकम जहाँ धार्मिक संस्थाओं में उदारतापूर्वक दो, वहीं दीन-दुखियों की सेवा भी प्रेम से करो प्रेम से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।
इसके बाद हम लोगों की धर्म दर्शन विषयक चर्चा प्रारम्भ हुई। थोड़ी देर बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे संस्थान (स्वामी केशवानन्द योग संस्थान) के निमन्त्रण पर आयोजित होने वाले उत्तर प्रदेश दर्शन परिषद् के अधिवेशन में उपस्थित रहने एवं उद्घाटन समारोह के अवसर पर प्रवचन के लिए उन्हें निमन्त्रित कर उनसे विदा ली। उक्त अवसर पर भी मुनिजी ने सत्य और स्नेह को ही जीवन में अपनाने का सन्देश उपस्थित विद्वत्समाज को दिया।
उसके बाद से आज भी जब कभी उनका स्मरण आता है उनका मधुर स्नेहमय व्यवहार और सत्य एवं प्रेम का सन्देश मानस में गूंजने लगता है। पूज्य पुष्करमुनिजी जैसे सन्तों के उपदेश ही वर्तमान काल में फैल रही सामाजिक विसंगतियों का समाधान दे सकते हैं। आज भले ही उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी भौतिक शरीर से संसार में नहीं हैं, किन्तु उनके एक बार भी सम्पर्क में आये हुए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उनकी अभौतिक मूर्ति प्रतिष्ठित है जो अपने उपदेशों से चिरकाल तक उसके पथ को आलोकित करती रहेगी।
श्रुत सम्पन्न भी शील सम्पन्न भी .....
- (स्व.) डॉ. नरेन्द्र भानावत
२८ मार्च, १९९३ को श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी का चादर महोत्सव समारोह उदयपुर में संपन्न हुआ। उस दिन उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी की शारीरिक अवस्था अत्यन्त गंभीर थी। गढसिवाना वर्षावास में मैंने आपके दर्शन किये थे तब भी आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। लगता है अपने सुशिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि के चादर महोत्सव को आत्म साक्ष्य देने के भाव से ही वे समभाव में स्थित थे। चादर महोत्सव के ठीक ६ दिन बाद ही ३ अप्रैल, १९९३ को ८३ वर्ष की आयु में इस महापुरुष ने संथारापूर्वक महाप्रयाण कर दिया। भारतीय सन्त परम्परा का एक उज्ज्वल नक्षत्र परम ज्योति में विलीन हो गया।
श्रमण भगवान् महावीर ने मानव के चार प्रकार बताये हैं- १. श्रुत संपन्न, २. शील संपन्न ३ श्रुत व शील रहित तथा ४. श्रुत व शील संपन्न हो । केवल श्रुत संपन्न व्यक्ति उस पंगु के समान है। जिसके नेत्र तो हैं किन्तु पैर नहीं, और केवल शील संपन्न उस अंधे के समान है उसके पैर तो हैं पर नेत्र नहीं । श्रुत और शील रहित व्यक्ति अन्धा भी है और पंगु भी। श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जिसमें श्रुत भी हो और शील भी हो। अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि श्रुतसंपन्न भी थे और शीलसंपन्न भी।
Jain Education International
7
sonal 20
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी का बाह्य आभ्यन्तर व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक भव्य एवं प्रभावक था विशाल देह-यष्टि, लम्बा कद, दीप्तिमान तेजस्वी प्रशांत मुखमण्डल, उन्नत ललाट, नुकीली ऊँची नासिका, सशक्त मांसल भुजाएँ, दिव्य नेत्र, पीयूषवर्षी मेघ गर्जन । ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व का अनूठा संगम, संयम में कठोर और व्यवहार में करुण-कोमल, ज्ञान में पर्वत-शिखर सी ऊँचाई और आचार में समुद्र की गहराई, नरमाई और तरुणाई का अद्भुत
सामंजस्य ।
10:30
367
आप प्रत्युत्पन्नमति सफल ध्यान साधक और संवेदनशील साहित्यकार थे। एकान्त में घण्टों बैठे आप ध्यान करते थे और अजपा जाप भी। आप कहा करते थे-जप में दो अक्षर हैं। “ज” का अर्थ है जन्म का विच्छेद करने वाला और "प" का अर्थ है पाप का नाश करने वाला। अतः जन्म-मरण का आवागमन रुकता है। ध्यान से मन की शुद्धि होती है। जप से वचन की शुद्धि होती है। और आसन से काया की शुद्धि होती है। आप प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रातः, मध्याह्न और रात्रि में जाप करते थे। भोजन की अपेक्षा भजन को अधिक महत्व देते थे। दिन में ११ बजे से १२ बजे तक ध्यान-साधना करके जब आप मांगलिक फरमाते थे तो श्रद्धालु भक्तों की अपार भीड़ जमा हो जाती थी। आपके साधनाशील व्यक्तित्व और वचन-सिद्धि के प्रभाव से अनेक रोते हुए चेहरे मुस्कान में बदले, व्याधिग्रस्त व्यक्ति रोगमुक्त हुए ।
आपके सत्संग में जो भी आता, उसे आत्म-शक्ति और मानसिक शान्ति मिलती थी आप भारतीय सन्त परम्परा के मूर्धन्य संत थे। आपका कार्य था जीव मात्र को उसके स्वभाव का बोध कराना। वृद्धावस्था में भी आप में नवयुवक-सा उत्साह और पैरों में अंगद -सी शक्ति थी। सरलता, सहिष्णुता और सरसता की प्रतिमूर्ति इस आध्यात्मिक विभूति को हार्दिक श्रद्धांजलि एवं प्रणति ।
अद्भुत करम अद्भुत धरम
-व्याख्यान वाचस्पति डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया (एम.ए., पी.एच.डी., डी. लिट्, विद्यावारिधि : साहित्यालंकार)
कर्म से निष्कर्म होने की परम्परा तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित है। द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म के वातायन से कर्म का चक्र प्रायः चला करता है। शुभ और अशुभ कर्म के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं। कर्म के अधीन यह प्राणी अनन्त काल से भव-भ्रमण कर रहा है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा प्राण तत्त्व की तीन श्रेणियाँ हैं। जो शरीर से संश्लिष्ट मोहजन्य जीवन जीता है, वह प्राणी बहिरात्मा कहलाता है। शरीर और आत्मा को भिन्न समझ कर जो सत्कर्म में प्रवृत्त होकर आत्म-विकास में सक्रिय रहता है,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org/