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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साधना के अमृत कलश उपाध्यायश्री जी
-उमरावमल चोरडिया (अध्यक्ष, अ. भा. श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस राजस्थान संभाग )
सागर से विशाल मोती के समान धवल अध्यात्म साधना के उज्ज्वल नक्षत्र जप-तप ध्यानयोगी साधना सूर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का सम्पूर्ण जीवन दिव्य तेजस्विता से परिपूर्ण था । वे सच्चे अर्थों में कर्मठ जपयोगी ध्यानयोगी संत महापुरुष थे। संगठन के प्रबल पक्षधर उपाध्यायश्री ने जीवन पर्यन्त संघ व समाज में वीर वाणी का शंखनाद कर जनचेतना जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यसन मुक्त समाज की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान कर हजारों-हजार व्यक्तियों को सात्विक सदाचार जीवन जीने की प्रेरणा दी। साधना से समाधि उनके जीवन का लक्ष्य बन चुका था। उनका सम्पूर्ण जीवन मानवतावादी, धर्म को सच्चे अर्थों में जीने वाले ऐसे संत का जीवन था जो संकीर्ण विचारधाराओं से ऊपर उठकर समाज को नई रोशनी, नया चिन्तन देने वाले महापुरुष का जीवन था। उनकी पुण्य स्मरण ही पुष्कर जैसा पवित्र और हम सब के लिए मंगलकारी बने इसी शुभ भावना के साथ।
वे आदर्शों में जीवन्त हैं
-श्री नेमनाथ जैन (इन्दौर)
पूज्य उपाध्यायश्री को शास्त्रों का गहन अध्ययन होने के साथ-साथ लेखक, वक्ता, कवि और वे साहित्य सृजनकार थे। उपाध्यायश्री ने स्वयं के अध्ययन के साथ-साथ अनेकों साधु-सन्तों, श्रावक-श्राविकाओं को सहन अध्ययन कराया है। राष्ट्रीय एकता और लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों का पोषण किया। अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को सदाचार, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त का उपदेश देकर बहुजनहिताय सर्वजन सुखाय का अभूतपूर्व कार्य किया।
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पूज्य उपाध्यायप्रवर ने हमें श्री देवेन्द्र मुनिजी के रूप में ऐसा रत्न प्रदान किया जो आज हमारे सिरमौर है एवं शासन के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर जिनशासन की महती प्रभावना कर रहे हैं।
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आज उपाध्यायप्रवर हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके आदर्श, उनका साहित्य और उनकी प्रेरणा आज भी विद्यमान है और आने वाले समय में उनका बताया पथ हमारा दिशादर्शन करेगा। निकट समय में गुरुदेव की पूर्ति अपूरणीय है। उनके चरणों में श्रद्धास्पद, श्रद्धावनत वन्दन करता हुआ हृदय की अनन्त आस्थाओं के साथ श्रद्धायुक्त श्रद्धार्चना अर्पित करता हूँ।
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स्नेहमूर्ति उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी
-स्वामी अनन्त भारती
( महामहोपाध्याय ब्रह्ममित्र अवस्थी)
आज से लगभग नौ वर्ष पूर्व की बात है अगस्त १९८५ में वीर नगर दिल्ली के स्थानक में पूज्य भण्डारी जी अपने शिष्य-प्रशिष्यों के साथ चातुर्मास कर रहे थे। पूज्य भण्डारीजी से मेरा दो-तीन वर्षों से परिचय था मैं उनसे मिलने के लिए उक्त स्थानक में गया। उसी अवसर पर मुझे पूज्य उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी से मिलने का अवसर मिला। सामान्य परिचय के बाद कुछ धार्मिक चर्चा प्रारम्भ हुई। मुनिजी ने ब्राह्मण धर्म, जिसे प्रायः सनातन धर्म कहा जाता है, के कुछ महनीय पक्षों की चर्चा प्रारम्भ की, और उसके ही समानान्तर जैन परम्परा के साधना पक्षों का उल्लेख करते हुए मेरे समक्ष एक प्रश्न रखा कि क्या दोनों परम्पराओं के मूल में कहीं रञ्चमात्र भी अन्तर दिखाई देता है ? उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि सभी धार्मिक परम्पराओं के मूल में प्रेम और सर्वसमत्व की भावना प्रतिष्ठित है। सभी प्राचीन धर्माचार्यों ने प्रेम के माध्यम से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। उन्होंने अनके उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि जिस प्रकार भागीरथी का पावन नीर यात्रा करता हुआ धीरे-धीरे मलिन होता हुआ हावड़ा के पास स्नान योग्य भी नहीं रह जाता, उसी प्रकार विविध धार्मिक परम्पराओं में कालान्तर में विकार आने लगता है, और उनकी पावनता मिटने लगती है, परस्पर वैर विरोध प्रकट होने लगता है, हम साधु-सन्तों और विवेकशील पुरुषों को चाहिए कि धर्म के सदाचार पक्ष की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहे।
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हम लोगों की चर्चा चल रही थी, तभी एक गृहस्थ परिवार उनके दर्शन के लिए आया। परिवार में पति, पत्नी और बच्चे थे। प्रणाम करके वे लोग वहीं आसन लेकर बैठ गये। मुनिजी ने कुशल क्षेम पूछने के बाद उनका व्यवसाय पूछा। वे एक व्यापारी थे। व्यवसाय के परिचय के अनन्तर मुनिजी ने पूछा- अपने व्यापार के प्रसंग में तुम कितनी ईमानदारी बरतते हो? वे सज्जन मौन रहे। मुनिजी ने उस मौन में उनका उत्तर समझकर बड़े प्रेम से उन्हें समझाया कि देखो, छल प्रपञ्च की कमाई का धन खाकर तुम्हारे बच्चों का चरित्र नष्ट हो जायेगा, और वे स्वयं तो कालान्तर में दुखी होंगे ही, बुढ़ापे में तुम्हारा जीवन भी नरक बन जायेगा। इसलिए यदि तुम अपने पुत्र-पुत्रियों को जीवन में सुखी देखना चाहते हो, अपना बुढ़ापा सुखमय बिताना चाहते हो तो व्यापार में पूरी ईमानदारी बरतो। एक बात और ध्यान में रखो कि अपनी आमदनी का एक निश्चित हिस्सा नियमित रूप से दान-पुण्य के काम में लगाओ। दान करते समय भी नाम की इच्छा न रखो।
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